Sunday, February 21, 2016

गाय माता के बाद अब भारत माता की शरण में निकरधारी

इतिहास गवाह है कि खाकी निकरधारी और भगवावाले जब-जब कमज़ोर पड़े हैं या जब- जब कोई चुनाव सिर पर मंडराया है, तब-तब उन्हें धर्म और देश की बेसाख्ता याद आई है। बात भी बहुत पुरानी नहीं हुई है। हाल ही में बिहार विधानसभा के चुनाव हुए। इस चुनाव में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विकास गाथा, मोदी लहर, सुशासन और 56 इंच सीने का नारा जब पिटने लगा तो निकरधारियों को अचानक गाय माता की याद आ गई। सोशल मीडिया पर गाय पूजने का फैशन शुरू हो गया। बिहार जाने के बाद बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह गाय की पूंछ पकड़कर वैतरणी (विधानसभा चुनाव) पार करने की जुगत भिड़ाने लगे तो वहीं कथित देशभक्त सामाजिक संगठन और बीजेपी के पालनहार आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत भी कूद पड़े। ये दीगर बात है कि बिहार की जनता इस बार इनके छलावे में नहीं आई और दूध से मक्खी की तरह इन्हें बिहार से निकाल फेंका। बिहार चुनाव के बाद निकरधारियों के गाय प्रेम, राम प्रेम और देश में ठहराव आ गया। लेकिन तभी पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की सुगबुगाहट होने लगी। दिल्ली और बिहार में धोबियापाट खाने के बाद बीजेपी को समझ में नहीं आ रहा था कि इन चुनावों के जीतने के लिए इस बार कौन सा हथकंडा अपनाने लगे। निकरधारियों ने फिर से काठ की हांडी चढ़ाने की कोशिश की और रामनामी माला जपने लगे। लेकिन ये नारा उन्हें कारगर होता नहीं दिखा। क्योंकि देश की नई पीढ़ी धर्म और जाति से ऊपर उठकर तरक्की की सीढ़ी पर चढ़ना चाहती है। रही बात पुरानी पीढ़ी की तो उसने देखा है कि कैसे मर्यादा पुरषोत्तम श्रीराम को टाट में भेजने के बाद उनके भक्तजन कैसे ठाठ में रह रहे हैं। भगवा ब्रिगेड ने फिर से मोदी का चेहरा बेचने का इरादा कर लिया। नब्बे की दशक की तरह ‘आज चार प्रदेश, कल सारा देश’ का सपना देख रही बीजेपी किसी भी तरह से इन राज्यों में सत्ता हासिल करना चाहती है। लेकिन मुश्किल ये है कि वो अपनी सरकार की दो साल के काम- काज की असलियत भी जानती है। लेकिन सवाल पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु, असम और पुड्डुचेरी में सत्ता हासिल करने की है। उसने रिस्क लेकर मोदी के दो साल के शासन को हवा में उछाला लेकिन वो औंधे मुंह आ गिरा। घोभगवावालों को दिखने लगा कि घोषणापत्र के वादे जनता की नज़रों में टांय-टांय फिस्स साबित हो रहे हैं। महंगाई पर सरकार नाकाम दिख रही है। बेरोज़गारी मिटाने के वादे पर भी वो खरी नहीं उतर पा रही है। ग़रीबों की सरकार होने का दावा करने वालों के राज में जनता ने अडानी और अंबानी को फलते-फूलते और क़र्ज़ माफी की मलाई खाते देख रही है। सत्ता में आने से पहले 56 इंचा का सीना दिखाकर दुश्मन देश का मुंह काला करने का दम भरनेवाले प्रधानमंत्री की सरकार में चीन, पाकिस्तान, बांग्लादेश की सीनाज़ोरी देख रही है। प्रधानमंत्री को अपने देश में कम और परदेस में समय बिताते ज़्यादा देख रही है। लोगों में मोदी सरकार के लिए निराशा का भाव देखा तो भगवाधारियों को ऐसे मुद्दे की तलाश होने लगी, जो उसकी गिरती साख को थाम सके और चुनावी राज्यों में उसे जीत दिला सके। देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय जवाहर लाल नेहरू यानी जेएनयू प्रकरण को भी इसी संदर्भ से जोड़कर देखा जाना चाहिए। अभी तक ये साबित नहीं हो पाया है कि जेएनयू के छात्रों ने पाकिस्तान ज़िंदाबाद के नारे लगाए थे भी या नहीं। लेकिन भक्तजन चैनल और अख़बरों की ख़बरें ज़रूर संदेह के दायरे में आ गई हैं। कन्हैया पर देशद्रोह की धारा लगानेवाले दिल्ली पुलिस के प्रमुख बस्सी पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं कि आख़िर क्यों वो अदालत में ‘देशद्रोही कन्हैया’ की ज़मानत का विरोध नहीं करना चाहते। थोड़ी देर के लिए (तर्क के लिए ही सही) भगवा वालों का आरोप सच मान लिया जाए कि जेएनयू में मुट्ठीभर अतिउत्साही अतिरेक में बहते नौजवान भारत विरोधी और पाकिस्तान समर्थित नारे लगा रहे थे, तो भी ये विशुद्ध तौर पर क़ानून- व्यवस्था का मामला बनता था। इस मसले को बेहद व्यवस्थित तरीक़े से शालीनता के दायरे में रहते हुए उन ‘मुट्ठीभर देशद्रोही छात्रों’ को गिरफ्तार किया जा सकता था और न्यायिक प्रक्रिया के तहत दंड दिया जा सकता था। लेकिन भगवावालों और भक्तजनों के मन में तो कुछ और ही अरमान पल रहे थे। चुनाव जीतने की छटपटाहट में उन्होंने इसे फौरन ‘देशभक्ति बनाम देशद्रोह का मुद्दा बना डाला। संघ परिवार और बीजेपी ने इसे देशभक्ति का मसला बनाने के लिए पूरी तरह से कमर कस ली। इसके लिए छात्र संगठन को भी झोंक डाला। मीडिया में कथित तौर पर पत्रकारिता करने आए भक्तजन पत्रकारों, छी न्यूज़ जैसे चैनलों, भगवाप्रेमी अख़बारों के सांसद मालिकों और सोशल मीडिया पर मौजूद अपने भक्तजनों की ड्यूटी इसे सुलगाने में लगा दिया। इसी बहाने बीजेपी और संघ परिवार ने एक तीर से दो निशाने भी साधने की कोशिश की। अव्वल, पाकिस्तान के बहाने हित देशभक्ति का उन्माद पैदा करने की कोशिश की। दोयम, बीजेपी के एक मंत्री की वजह से हैदराबाद में आत्महत्या करने पर मजबूर हुए दलित छात्र रोहित वेमुला मुद्दे को क़ब्र में दफनाने की कोशिश। फिलहाल दोनों ही मुद्दे पर भगवा ब्रेगड को सफलता मिलती नहीं दिख रही। निकरधारियों की इस आक्रामक देशभक्तिजनित रणनीति के पीछे उनकी मजबूरी को समझना होगा। लोकसभा चुनाव के बाद जब चार राज्यों में चुनाव हुए तब नरेंद्र मोदी का जादू सिर चढ़कर बोल रहा था। इसलिए महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और जम्मू-कश्मीर में पार्टी को जीत मिली। लेकिन उसके बाद के हुए चुनावों ने साबित कर दिया कि मोदी का बुलहुला फूट रहा है। दिल्ली में आप के अरविंद केजरीवाल ने मोदी, बीजेपी और आरएसएस को एक साथ चित्त कर दिया। बिहार में भगवा वालों ने मोदी की विकास गाथा और दलित प्रेम के साथ गाय की पूंछ पकड़ी फिर भी जनता ने नकार दिया। भगवा ब्रिगेड को ऐसे मुद्दे की तलाश थी, जो उसके मंसूबों को पूरा कर सके। इसी दौरान दो ऐसी घटनाएं घटीं, जिसे निकरधारियों को अपने अरमान पूरे होते दिखे। पठानकोट पर हुए आतंकवादी हमले और सियाचिन में बर्फीले तूफान में फंसकर मरे सेना के जवानों की घटना के बाद जब उसने लोगों में देशभक्ति का उबाल देखा तो उसने फौरन रणनीति बना ली कि इस बार गाय माता की पूंछ छोड़कर भारत माता का दाम थामना है। आनन- फानन में भगवाधारियों और भक्तजनों ने जेएनयू को भारत विरोधी गतिविधियों का अड्डा बताने और इसे बंद करने की मुहिम छेड़ दी। सोशल मीडिया पर ‘शट जेएनयू’ की मुहिम की बाढ़ आ गई। टीवी चैनलों और अखबारों में बीजेपी नेताओं और पूरे मामले को देशभक्ति बनाम देशद्रोह में बदल दिया। भारत माता के अपमान को किसी भी कीमत पर सहन न किए जाने के बयानों की झड़ी लग गई। कन्हैया कुमार की पेशी के दौरान कोर्ट में मीडिया और दूसरे लोगों पर दो दिनों तक हुए हिंसक हमलों ने देशभक्ति की एक नई परिभाषा गढ़ दी। मामला इतना गंभीर हो गया कि सुप्रीम कोर्ट को सीधे दखल देना पड़ा। बीजेपी अब ये मानकर चल रही है कि वो अपनी इस रणनीति में काफी हद तक सफल हो चुकी है। इसलिए अब वो इस मुद्दे को अपने जन संगठनों के ज़रिए देश भर में ले जाने की तैयारी में है। सड़कों पर होर्डिंगों, बैनरों, पोस्टरों के जरिए देशभक्त बनाम देशद्रोही के मुद्दे को गरम किया जाएगा। राहुल गांधी जैसे नेताओं पर भी देशद्रोह का मुक़दमा दायर कर बीजेपी इस तैयारी में है कि वो जनता में ये संदेश दे सके कि कांग्रेसी और कम्युनिस्ट भारत विरोधी हैं और देश की एकता- अखंडता को केवल वही बचा सकती है। कुल मिलाकर बीजेपी आने वाले विधानसभा चुनावों में आक्रामक राष्ट्रवाद को अपना प्रमुख मुद्दा बनाएगी। बावजूद इन तमाम धतकरमों के इसके बीजेपी की राह विधानसभा चुनावों में आसान नहीं होगी। ये बात बीजेपी भी जानती है क्योंकि इन राज्यों में उसका मुक़ाबला क्षत्रपों से है। मिसाल के तौर पर पश्चिम बंगाल में ममता बैनर्जी से दो-दो हाथ करने हैं, जहां कभी उसने बांग्लादेशी घुसैपैठियों का मुद्दा बनाकर मुस्लिमों के प्रति अपना विरोध जताया था। उस राज्य में मुस्लिमों की आबादी लगभग 29 फीसदी है। ममता का मुक़ाबला करनेवाला वाममोर्चा हाशिए पर है। फिर भी बीजेपी की कोई लहर नहीं। क्योंकि लोगों ने देखा है कि ग़ैरबीजेपी सरकारों ने बंगाल की एक इंच ज़मीन भी बांग्लादेश को नहीं दी लेकिन नरेंद्र मोदी कई बीघा सौंप आए। बंगाल में तपन सिकदर जैसे नेता भी नहीं रहे, जो अपने दम पर बीजेपी को लड़ाई में ला सकते। अब तो बंगाल बीजेपी हीरो-हीरोइनों के हवाले है, जो भीड़ तो जुटा सकते हैं लेकिन वोट नहीं। इसी तरह से तमिलनाडु में लड़ाई जयललिता और करुणानिधि के बीच ही होती है। ये सिर्फ कहानियों में ही होता है कि दो बिल्लियों की लड़ाई में रोटी बंदर ले जाए। असम में भी बीजेपी ने घुसपैठ का मुद्दा बनाया है। लेकिन वहां उससे भी बड़ा एक मुद्दा आज भी ज़िंदा है औऱ वो है बोडोलैंड का। सत्ता की लालच में बीजेपी ये बात बार-बार भूल जाती है कि न तो पूरा देश अंधा राष्ट्रभक्त नहीं है और न ही पूरा देश जाति-पाति से ओत-। इसलिए बीजेपी को ये भ्रम है कि अगर भगवा का विरोध करनेवालों को देशद्रोही और पाकिस्तान का दलाल साबित करके उसे सत्ता सुख हासिल होगा।

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