भारतीय राजनीति
के अखाड़े में ताबड़तोड़ कई रिकॉर्ड बनानेवाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विदेश
यात्राओं के मामले में भी नया रिकॉर्ड बना डाला है। प्रधानमंत्री बने हुए अभी छह
महीने ही हुए हैं लेकिन वो नौ देशों की परिक्रमा कर चुके हैं। यानी 180 दिन में से
वो 31 दिन विदेश में ही रहे हैं। विदेश घूमने का ऐसा प्रेम पहले किसी और
प्रधानमंत्री में नहीं देखा गया। जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, अटल बिहारी
वाजपेयी और मनमोहन सिंह जैसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहनेवाले नेताओं ने भी इतना
दौरा नहीं किया। लेकिन मोदी के पास आदतन हर आलोचनाओं का जवाब होता है। इन यात्राओं
पर भी जवाब है।
विदेश यात्रा से
लौटने के बाद मोदी ने अपने ब्लॉग में बहुत डींग हांकी है। दावा किया है कि उनके इस
यात्रा से भारत की छवि पर बेहद सकारात्मक असर पड़ा है। अपनी यात्राओं को ये कहकर
सही ठहराने की कोशिश की कि आस्ट्रेलिया जाने में 28 साल और फिजी जाने में भारतीय
प्रधानमंत्री को 33 साल लग गए। जबकि सूचना क्रांति के इस दौर में लोग और क़रीब आ
रहे हैं। ऐसे में इन देशों का भारत के साथ नज़दीकी कितना अहम है। हैरानी की बात है
कि मोदी ने हाल ही में बीस अंतरराष्ट्रीय नेताओं के साथ भेंट की। बीस द्विपक्षीय
बैठकों में शामिल हुए। मोदी इस भारत के लिए भले ही अहम क़दम बता रहे हों। लेकिन सच
तो ये है कि मोदी के इन दौरों से भारत को कुछ भी हासिल नहीं हुआ है। हम वर्षों
पहले जहां खड़े थे, आज भी वहीं खड़े हैं।
मोदी के झूठे
दावों के पहाड़ को देखिए। आस्ट्रेलिया ने यूरेनियम सप्लाई के मुद्दे पर भारत को फिर
से ठेंगा दिखा दिया है। उसने मोदी से केवल वादा भर किया है कि वो भारत को यूरेनियम
सप्लाई करने के बारे में सोचेगा। हद तो ये है कि आस्ट्रेलिया
में एक भी परमाणु उर्जददा संयंत्र नहीं है और वो दुनियाका तीसरा सबसे बड़ा
यूरेनियम उत्पादक देश है। मीठी-मीठी बात कर मोदी को टहलानेवाले आस्ट्रेलिया ने कई
और मुद्दों पर भी भारत को मुंह चिढ़ाया। आस्ट्रेलिया ने भारत के साथ फ्री ट्रेड एग्रीमेंट भी नहीं किया। इस मुद्दे पर भी उसने मोदी को केवल भरोसा ही दिलाया है। कहा
है कि वो बहुत जल्द भारत के साथ भी फ्री ट्रेड एग्रीमेंट करेगा। लेकिन उसने मोदी के
सामने ही चीन के साथ फ्री ट्रेड एग्रीमेंट कर लिया। मोदी टका सा मुंह लेकर रह गए। मोदी
के हिस्से आया तो केवल सांस्कृतिक समझौते।
विदेश में बुद्धू बनकर आए मोदी अपनी हो रही आलोचनाओं को
लोकप्रियता में बदलने की कला में बखूबी माहिर हैं। अपनी इन्हीं त्वरित चालाकियों
से वो लगातार विरोधियों को छका रहे हैं। अब मोदी का क़ाबिलयत का एक और नमूना
देखिए। वो लोगों को ये बता रहे हैं कि वो ऑस्ट्रेलिया में खेती के मामले में प्रति
एकड़ उत्पादन का हुनर सीखने गए थे। तर्क गढ़ रहे हैं कि हमारे देश में आबादी लगातार
बढ़ रही है और खेती की ज़मीन लगातार सिकुड रही है। ऐसे में कम से कम ज़मीन में
ज़्यादा पौष्टिक आहार पाने की कला सीखने गए थे ताकि उनके ‘भाई-बहनों’ की सेहत नियमत बनी रहे। दावा कर रहे हैं
कि देश के किसान गन्ना, गेहूं, चना, अरहर और मूंग की खेती में माहिर हैं।
विधानसभा के चुनाव सिर पर थे और विदेश दौरों की नाकामियों को
लेकर विरोधियों का हमला भी हो रहा था। ऐसे मौक़े पर चतुर मोदी ने अपने विदेश दौरे
को गरीबी से जोड़कर छलावे की राजनीति का एक और परिचय दिया। झारखंड में ये ज्ञान
दिया कि हमारे देश में केले का उत्पादन होता है। केला गरीबों का फल है। लेकिन
वैज्ञानिक तरीके से उनके अंदर ज्यादा विटामिन और लौह तत्व आ जाएं ताकि उसके खाने के बाद गर्भवती महिलाएं स्वस्थ बच्चे को जन्म दे सकें। बच्चा
ताकतवर पैदा हो। केला खाने से बच्चों की आंखों की रौशनी तेज़ हो। मीडिया की हर
विधा को साधने में माहिर मोदी ने केला को भी गरीब से साध दिया। दावा किया कि
उन्होंने आस्ट्रेलिया जाकर वहां के विश्वविद्यालय से केवल इसलिए हाथ मिलाया ताकि
गराबों को खाने में ज़्यादा विटामिन और लौह तत्व वाले केले मिल सकें।
मोदी बोलते बहुत अच्छा हैं। इससे भी अच्छा वो मीडिया को
मैनेज करना जानते हैं। गरीबी और चायवाले की दुर्दशा की ब्रैंडिंग कर पीएम बने मोदी
ने विदेश जाकर अपनी तमाम हसरतें पूरी कीं। लेकिन मीडिया के ज़रिए लोगों में ये
संदेश नहीं जाने दिया कि ये आरामतलबी या हवाख़ोरी है। मोदी बहुभाषी हैं। गुजराती
के अलावा वो ठीक ठाक हिंदी और अंग्रेजी भी बोल लेते हैं। माध्यों को साधना जानता
हैं। अपनी इन्ही कलाओं का लोहा मनवाते हुए उन्होंने समंदर के किनारे अच्छी-अच्छी
तस्वीरें खिंचवाईं। इंस्टाग्राम के ज़रिए सोशल मीडिया पर बांट भी दिया और मोदियापा
करनेवाले समर्थक इन तस्वीरों को लेकर जनता को ये बताने में जुट गए कि मोदी ने
विदेश जाकर वो काम किया है, जो अभी तक बड़े-बड़े सूरमा नहीं कर पाए।
संवाद, भाषण और संप्रेषण के मामले में मोदी के ऊपर रिसर्च होना चाहिए। अभी ये बात हैरान करनेवाले ज़रुर हो सकती है। लेकिन मोदी की बातों पर गंभीरता से गौर करेंगे तो ये बात गले उतर जाएगी। आस्ट्रेलिया ही नहीं बल्कि मोदी ने अपनी जापान यात्रा को भी आदिवासियों के कल्याण से जोड़कर प्रसारित किया था। मीडिया में प्रसारित करवाया कि जापाना में 'सिकल सेल एनीमिया' बीमारी को लेकर उन्होंने शिन्या यामानाका से मुलाकात की। शिन्या यामानाका को स्टेम सेल में शोध के लिए वर्ष 2012 का नोबेल प्राइज़ मिला था। ये बीमारी भारत के आदिवासी इलाकों में आम तौर पर पाई जाती है। मोदी और उनके समर्थकों ने इस मुलाकात को झारखंड में इस तरह पेश किया कि मानों अगर वो जापान नहीं जाते तो फिर आदिवासियों की ये बीमारी कभी दूर नहीं होती। क़िस्सागोई में माहिर मोदी ने लोगों को बताया जो मेरे आदिवासी भाई बहन हैं, ह सदियों से पारिवारिक बीमारी के शिकार हैं। अगर मां-बाप को बीमारी है तो बच्चों को बीमारी हो जाती है। आज दुनिया में इसकी कोई दवाई नहीं है। वो शोध के लिए केवल इसलिए पैसा दे रहे हैं ताकि जब दवा आ जाए तो आदिवासियों की ये बीमारी जड़ से ख़त्म हो जाए।
ये बात सोलहों आने सच है कि विदेश में मोदी फ्लॉप रहे हैं। यहां तक कि वो संयुक्त राष्ट्र में भारत की सदस्यता का मुद्दा भी नहीं उठा पाए। इन तमाम नाकामियों के बावजूद वो विरोधियों के लिए बड़ा मुद्दा हैं। लेकिन हैरानी की बात तो ये कि मोदी के लिए उनके विरोधी मुद्दा ही नहीं हैं। वो जनता से संवाद कर शक ओ शुबहा दूर करते हैं। माडिया के तल्ख सवालों से कन्नी काटने में भलाई समझते हैं। जब भी लगता है कि भाषण में दोहरापन आने लगा है, तो मुद्दा बदल देते हैं। कुछ नया टेप बजाने लगते हैं। इन बातों की सच्चाई से लेकर दावों का राजनीतिक विश्लेषण हो सकता है। तथ्यात्मक गलतियों को लेकर बहस भी हो सकती है। लेकिन संवाद क़ायम कर बुद्धू बनाइंग की इस कला पर बहस की गुंजाइश किसी और नेता में फिलहाल तो नहीं दिखती।
संवाद, भाषण और संप्रेषण के मामले में मोदी के ऊपर रिसर्च होना चाहिए। अभी ये बात हैरान करनेवाले ज़रुर हो सकती है। लेकिन मोदी की बातों पर गंभीरता से गौर करेंगे तो ये बात गले उतर जाएगी। आस्ट्रेलिया ही नहीं बल्कि मोदी ने अपनी जापान यात्रा को भी आदिवासियों के कल्याण से जोड़कर प्रसारित किया था। मीडिया में प्रसारित करवाया कि जापाना में 'सिकल सेल एनीमिया' बीमारी को लेकर उन्होंने शिन्या यामानाका से मुलाकात की। शिन्या यामानाका को स्टेम सेल में शोध के लिए वर्ष 2012 का नोबेल प्राइज़ मिला था। ये बीमारी भारत के आदिवासी इलाकों में आम तौर पर पाई जाती है। मोदी और उनके समर्थकों ने इस मुलाकात को झारखंड में इस तरह पेश किया कि मानों अगर वो जापान नहीं जाते तो फिर आदिवासियों की ये बीमारी कभी दूर नहीं होती। क़िस्सागोई में माहिर मोदी ने लोगों को बताया जो मेरे आदिवासी भाई बहन हैं, ह सदियों से पारिवारिक बीमारी के शिकार हैं। अगर मां-बाप को बीमारी है तो बच्चों को बीमारी हो जाती है। आज दुनिया में इसकी कोई दवाई नहीं है। वो शोध के लिए केवल इसलिए पैसा दे रहे हैं ताकि जब दवा आ जाए तो आदिवासियों की ये बीमारी जड़ से ख़त्म हो जाए।
ये बात सोलहों आने सच है कि विदेश में मोदी फ्लॉप रहे हैं। यहां तक कि वो संयुक्त राष्ट्र में भारत की सदस्यता का मुद्दा भी नहीं उठा पाए। इन तमाम नाकामियों के बावजूद वो विरोधियों के लिए बड़ा मुद्दा हैं। लेकिन हैरानी की बात तो ये कि मोदी के लिए उनके विरोधी मुद्दा ही नहीं हैं। वो जनता से संवाद कर शक ओ शुबहा दूर करते हैं। माडिया के तल्ख सवालों से कन्नी काटने में भलाई समझते हैं। जब भी लगता है कि भाषण में दोहरापन आने लगा है, तो मुद्दा बदल देते हैं। कुछ नया टेप बजाने लगते हैं। इन बातों की सच्चाई से लेकर दावों का राजनीतिक विश्लेषण हो सकता है। तथ्यात्मक गलतियों को लेकर बहस भी हो सकती है। लेकिन संवाद क़ायम कर बुद्धू बनाइंग की इस कला पर बहस की गुंजाइश किसी और नेता में फिलहाल तो नहीं दिखती।
1 comment:
modiji ki buraai karnewaala aur koi nahi par Congress ka dalla hi ho sakta hai
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