पुरानी कहावत है कि राजनीति में कुछ भी मुमक़िन है। राजनीति
की अखाड़े के पुराने समाजवादी पहलवान मुलायम सिंह यादव अभी तक इसी मुहावरे की पूंछ
पकड़कर बैठे हुए हैं। इसलिए पुराने समाजवादियों के साथ फिर से गलबहियां करना शुरू
कर दिया है। देश की राजधानी दिल्ली में हुई पुराने समाजवादियों की बैठक को इसी
संदर्भ में देखा जाना चाहिए। मुलायम सिंह चाहते हैं कि वो किसी भी तरह से एक बार
देश का प्रधानमंत्री बन जाएं। लेकिन उनका ये सपना बार-बार चूर हो रहा है। सबसे
पहले नब्ब के दशक में ज्योति बसु और लालू प्रसाद ने लंगड़ी मारी थी। हालिया लोकसभा
चुनाव में बीजेपी के नरेंद्र मोदी ने चारों खाने चित्त कर दिया। राजनीति के अखाड़े
में मुलायम सिंह यादव हांफ ही रहे थे कि यूपी में विधानसभा के लिए उपचुनाव हो गए। विचित्र
किंतु सत्य की तरह ही मुलायम सिंह यादव की पार्टी को अप्रत्याशित जीत मिल गई। इस
जीत ने एक बार फिर से मुलायम सिंह यादव में जोश भर दिया। इसलिए मुलायम ने कांठ की
हांडी फिर से चढ़ाने की ठान ली।
जो कभी एक दूसरे को फूटी आंखों नहीं सुहाते थे, आज
हमप्याला- हमनिवाला बनने के लिए मजबूर हो गए हैं। मुलायम सिंह यादव योद्धाओं की एक
ऐसी सेना बनाने में लगे हैं, जो हाल-फिलहाल के युद्धों में लस्त-पस्त हो चुकी है। कपड़े
तार-तार हैं और ढाल ले सेलकर तलवार तक बेहाल हैं। लेकिन सपने अब भी बड़े-बडे देखे
जा रहे हैं। एक सूबा तो ढंग से संभाला नहीं जा रहा। लेकिन तुर्रा ये कि पूरा देश
संभाल लेंगे। लालू प्रसाद, नीतीश कुमार, एचडी देवेगौड़ा और देवीलाल घराने का सबसे
उभरता हुए युवा समाजवादी चेहरा दुष्यंत चौटाला के साथ मिलकर मुलायम ने खिचड़ी
पकाने की कोशिश की है। हैरानी की बात तो ये है कि इनमें से एक भी योद्धा ऐसा नहीं
है, जिसके दम पर मुलायम सिंह रणभेरी बजा सकें। बिहार में नीतीश कुमार की नाव
हिचकोले खा रही है। लोकसभा चुनाव के दौरान नीतीश को अपनी ताक़त और सामाजिक समीकरण
की हैसियत का अंदाज़ा हो चुका है। कुछ यही हाल लालू प्रसाद का भी है। कोर्ट-कचहरी
के चक्कर में जूते घिसा चुके लालू भी बिहार की राजनीति में हाशिए पर धकेल दिए गए
हैं। वो तो भल हो हालिया उपचुनावों का , जिसनें इन दोनों नेताओं को गाल बजाने का
थोड़ा मौक़ा दे दिया। जो नेता पिछले बीस सालों से एक दूसरे के ख़िलाफ़ तलवार लहरा
रहे थे, उन्हें मोदी की लहर ने एक मंच पर आने के लिए मजबूर किया। उप चुनाव में जीत
मिली तो फिर से लंगोट पहनकर ताल ठोंकने लग गए।
लेकिन सवाल केवल ये नहीं है कि मुलायम की मंशा रंग दिखा
पाएगी या नहीं। सवाल इन पुराने समाजवादी नेताओं की मौजूदा राजनीतिक हैयिसत की भी नहीं
है। सवाल इन नेताओं की फितरत और इनकी सोहबत की भी है। इसमें कोई शक़ नहीं कि
भारतीय जनमानस का मन सत्तालोलुप कांग्रेस से भर चुका है। अगर ऐसा नहीं होता तो नई
नवेली पार्टी उस दिल्ली में जीत हासिल नहीं करती, जिसके बारे में लोग पढ़ा लिखा
शहर होने की बात करते हैं। जनता को विकल्प की तलाश थी। फिलहाल जनता इस विकल्प के तौर
पर केवल बीजेपी को ही पसंद कर रही है। इसके पीछे कई सारी वजहें हैं।
जनता चाहती है कि अब देश में जाति और धर्म की राजनीति में
बंद हो। विकास के काम हों। युवाओं को रोज़गार मिले। हर घर में संपन्नता हो। ये देश
अब नब्बे के सामाजिक और राजनीतिक सोच से ऊपर उठ चुका है। एक ऐसी पीढी तैयार हो
चुकी है, जिसकी नज़र में राम मंदिर-बाबरी मस्जिद झगड़े की कोई अहमियत नहीं रह गई। 12-14
साल की ऐसी पीढ़ी भी तैयार हो चुकी है, जिसके मन में गुजरात दंगों को लेकर नरेंद्र
मोदी के खिलाफ कोई दुर्भावना भी नहीं है। नौजवानों की ये पीढ़ी जब अपनी जीवन शैली
बदलने के साथ ही देश की राजनीति की तरफ ताकती है तो उसे पीड़ी होती है। उसे समझ में
नहीं आता कि लोकतंत्र में शासन करने का अधिकार केवल एक ही ख़ानदान को क्यों दिया
जाए। इस पीढ़ी ने जब विकल्प तलाशना शुरू किया तो समाजवादियों की असलियत सामने आ
गई। पाया कि जिन समाजवादियों ने वंशवाद और भ्रष्टाचार के विरोध में वर्षों तक
तकरीरें दी हैं, वो ख़ुद ही इसके दलदल में धंसे हुए हैं। लालू की पार्टी में जब
नेतृत्व की बात होती है तो लालू या राबड़ी देवी के अलावा कोई चेहरा नज़र नहीं आता।
मुलायम सिंह यादव की पार्टी में नेतृत्व की बात होती है तो नाती-पोते तक
सांसद-विधायक बन जाते हैं। यहां तक महिलाओं के संसद में आने का विरोध में परकटी
मुहावरे उछालने वाले मुलायम सिंह यादव मौक़ा मिलते ही अपनी बहू डिंपल को सांसद बना
देते हैं। देवगौड़ा और ओम प्रकाश चौटाला की पार्टी भी इससे इतर नहीं है। चौटाला
परिवार को अजय और अभय के बाद तीसरी पीढ़ी दुष्यंत में ही नेतृत्व क्षमता दिखी।
देवगौड़ा को अपने बेटे कुमारस्वामी में ही भविष्य दिखता है।
समाजवादियों की ये छल-कपट देखने के बाद जनता का मन अब तीसरे
मोर्चे से भर गया है। जनता जानती है कि ये नेता केवल कुर्सी के लिए एक होने का
दिखावा कर रहे हैं। जिस दिन कुर्सी दिखने लगेगी, उसी दिन से इस मोर्चे में सिर
फुटव्वल की नौबत शुरू हो जाएगी। इस मोर्चे की मुश्किल ये भी कि इस एख डोरे से
बांधे रखने वाले चंद्रशेखर, वी.पी. सिंह, रामकृष्ण हेगड़े, मधु लिमए जैसे नेता भी
नहीं रहे। लिहाज़ा लालू और नीतीश के साथ मिलकर मुलायम सिंह यादव लाख उछल कूद मचा
लें, उनके हाथ फिलहाल कुछ लगनेवाला नहीं है।
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