Friday, March 28, 2014

कंबल ओढ़कर घी पीते है बीजेपी के नेता

लोकसभा चुनाव से ठीक पहले बीजेपी का असली चेहरा एक बार फिर सबके सामने आ गया। चाल, चरित्र और चेहरे का दावा करनेवाली राष्ट्रीय पार्टी के नेताओं ने अपनी हरकतों से एक बार फिर साबित कर दिया कि वो भी दूसरी पर्टियों के नेताओं की तरह ही सत्ता के भूखे हैं। इस पार्टी के अंदर भी दूसरी पार्टियों की तरह गुटबाज़ी है। इस पार्टी के अंदर भी देश की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस की तरह ही वंशवाद का रोग लग चुका है। इस पार्टी के अंदर भी उन तमाम बड़े नेताओं को हाशिए पर लगाया जा सकता है, जो व्यक्ति विशेष की आरती या चरण वंदना करने से इनकार कर दे। हालिया क़िस्सों ने बीजेपी में इन तर्कों को और मज़बूत किया है। चाहे बात लालकृष्ण आडवाणी की हो, मुरली मनोहर जोशी की हो, लालजी टंडन की हो, जसवंत सिंह की हो या फिर उमा भारती की।
बीजेपी में जो रोग दशकों पहले लग गया था, आज तक उसका इलाज नहीं हो सका है। जनसंघ के ज़माने में अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी को जोड़ी ने मिलकर बलराज मधोक और सुंदर सिंह भंडारी जैसे दिग्गज नेताओं को हाशिए पर डाल दिया। मधोक के मुक़ाबले युवा आडवाणी ने अनुशासनहीनता का पाठ पढ़ाकर मधोक को चलता कर दिया था। इसी तरह से बड़े नेता सिकंदर बख़्त ठंडे बस्ते में डाल दिए गए थे। आज भी लगभग 40-45 साल बाद में यही कुछ हो रहा है। दिग्गज नेताओं के मुक़ाबले युवा नरेंद्र मोदी को आग लाया गया तो पार्टी में भूचाल आ गया। सबसे पहले लालकृष्ण आडवाणी ने ही विरोध जताया। ये वही आडवाणी हैं, जिन्होंने गुजरात दंगों के समय मोदी का सबसे ज़्यादा मज़बूती से बचाव किया था। उस समय भी बीजेपी की गुटबंदी नज़र आई थी लेकिन ये गुटबंदी राजधर्म के पाठ के शोर के बीच दबकर रह गई थी।
लेकिन इस बार की गुटबंदी प्रधानमंत्री बनने और सरकार बनाने के दावे के शोर के बीच थमती नज़र नहीं आ रही। बीजेपी ने और ख़ास तौर पर राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने फैसला किया कि पार्टी नरेंद्र मोदी का चेहरा आगे कर लोकसभा का चुनाव लड़ेगी। इसका असर ये हुआ कि सबसे पहले परिवार के ही मुखिया और कभी प्रधानमंत्री के मज़बूत दावेदार रहे आडवाणी मुंह फुलाकर कोपभवन में चले गए। उन्हें मनाया गया। इसके बाद फिर फच्चर फंसा। आडवाणी इस बार गांधीनगर से निकलकर भोपाल से चुनाव लड़ना चाहते थे। शायद उन्हें अहसास था कि अगर बुढ़ापे में चुनाव जीतना है तो अपने किसी ज़माने के शिष्य नरेंद्र मोदी की छत्र छाया में आना पड़ेगा, जो उन्हें गंवारा नहीं था। उन्होंने नई चाल चली। भोपाल के अलावा मोदी के दुश्मन और अपने नए चेले हरेन पंडया के लिए सीट की मांग कर दी। लेकिन पार्टी में उनकी दाल नहीं गली। न तो उन्हें भोपाल से टिकट मिला और न ही उनके नए चेले हरेन पंडया को। शायद पार्टी चाहती थी कि भारी मन से ही सही लेकिन आडवाणी को अहसास हो कि उनकी आज की राजनीति ख़त्म हो गई है। वो बीजेपी के चूके हुए घोड़े हैं। उन पर दांव लगाया जा चुका है। अब उनकी राजनीति नई पीढ़ी मोदी और राजनाथ के रहमो-करम पर ही टिकी हुई है। मन मसोस कर आडवाणी को गांधीनगर से ही लोकसभा का चुनाव लड़ना पड़ा।
ऐसी ही तकरार बनारस में देखने को मिली। हवा उड़ी कि मोदी वडोदरा के अलावा शिव की नगरी काशी यानी बनारस से चुनाव लड़ेंगे। ये बात सुनते ही पार्टी के पूर्व अध्यक्ष और कभी प्रधानमंत्री के दावेदार रहे मुरली मनोहर जोशी हत्थे से उखड़ गए। क्योंकि इस सीट से फिलहाल वो चुनाव लड़ते है। लिहाज़ा उन्होंने सीट छोड़ने से इनकार कर दिया। पार्टी के बड़े नेताओं के बीच अपनी बात बड़े ज़ोरदार तरीक़े से रखी। लेकिन बुढ़ापे में उनकी आवाज़ नक्कारख़ाने की तूती बन कर रह गई। वो अपन भड़ास निकालते रहे। साफ-साफ कहते रहे कि वो सीट नहीं छोड़ेंगे। लेकिन किसी ने उनकी एक नहीं सुनी। थक हार कर उन्हें भारी मन से बनारस को अलविदा कहना पड़ा।
बीजेपी में केवल बनारस या भोपाल को लेकर ही झगड़ा नहीं हुआ। लघभघ हर बड़े नेताओं ने गाह बगाहे अपने दर्द का इज़हार किया। राजनाथ सिंह रहनेवाले पूरब के हैं। सारी ज़िंदगी वहीं की राजनीति की। 2009 में पूरब में जब गर्म हवा चली तो थपेड़ों से बचने के लिए भागकर पश्चिमी यूपी के ग़ाज़ियाबाद आ गए। बड़ी मुश्किल से जीते। इस बार मोदी वहर के बावजूद जीत टेढ़ी खीर की तरह लग रह थी। लेकिन उन्हें ये भी पता था कि मोदी लहर के बावजूद पार्टी अध्यक्ष चुनाव हार जाए तो करियर ख़त्म हो जाएगा और आख़िरी समय पर मोदी को लंगड़ी मारने का मौक़ा भी हाथ से चला जाएगा। उन्होंने सुरिक्षत सीट की तलाश की और नज़र अठल बिहारी वाजपेयी वाली सीट लखनऊ पर गड़ा दी, जहां से वाजपेयी का खड़ाऊ लेकर लालजी टंडन चुनाव जीतते हैं। लेकिन टंडन ने एक तरह से बग़ावत ही कर दी। उन्होंने भी सीट खाली करने से इनकार कर दिया। ख़ूब रोए धोए। लेकिन बड़े बेआबरू होकर सीट से रुख़सत हो गए।
      एक समय में जसवंत सिंह की पार्टी में बड़ी इज्ज़त हुआ करती थी। वाजपेयी सरकार में वो संकट मोचक हुआ करते थे। हर आड़े-तिरछे मौक़े पर पार्टी उन्हें आग कर दिया करती थी। यहां तक कि 2009 लोकसभा चुनाव में पार्टी को जब पश्चिम बंगाल का चुनाव बहुत कठिन लग रहा था तो उन्हें दार्जिलिंग से चुनाव लड़ने के लिए भेज दिया गया। वो जीतकर आए। बुढ़ापे में वो इस बार अफने घर बाड़मेर से टुनाव चाहते थे। अपनी बात उन्होंने साफ साफ पार्टी के बड़े नेताओं को बता दी। लेकिन जवाब सुनकर उन्हें सांप सूंघ गया। पार्टी ने साफ कह दिया कि उन्हें टिकट नहीं मिलेगा। क्यों? क्या हार जाते? या पार्टी उन्हें भी आडवाणी के रास्ते पर ले जाना चाहती थी? ख़ैर पार्टी ने टिकट नहीं दिया। निर्दलीय मैदान में उतरने को मजबूर हुए। सुषमा ने सबसे पहले अफनी पीड़ा बताई औऱ कहा कि जसवंत सिंह के साथ ऐसा नहीं होना नहीं चाहिए था। लेकिन वो भी जानती हैं कि नहीं होना चाहिए और होना चाहए में बहुत फ़र्क़ है। लेकिन आजकल पार्टी में उनकी भी कौन सुनता है?
यही हालत साध्वी उमा भारती की भी है। महिला हैं। पिछड़ी जाति की हैं। आक्रामक हैं। सत्ता के लिए कभी अपने भाषणों से आग लगा देने के लिए बदनाम उमा भारती का पार्टी का पार्टी ने ख़ूब दोहन किया। लेकिन आज उनकी भी बुरी हालत है। उन्होंने भोपाल से टिकट मांगा तो पार्टी ने झांसी से थमा दिया। वो हल्ला-गुल्ला करती रहीं। लेकिन किसी ने उनकी नहीं सुनी।
कुल मिलाकर बीजेपी के नेताओं ने अपनी हरकतों से साफ कर दिया कि वो जिस तीसरे मोर्चे को सत्ता के भूखे और सत्ता के लिए लड़नेवाले बताते हैं, उनमें और बीजेपी में कोई अंतर नहीं है। इस पार्टी में भी कांग्रेस की तह वंशवाद है। सत्तालोलुप नेताओं की भीड़ है। पुराने ज़माने के नेताओं के दिन लद गए हैं। ये कांग्रेस नहीं है, जो अपने पुराने नेताओँ को ढोए। ये पार्टी भले ही कांग्रेस को गाली दे लेकिन कांग्रेस जैसा अनुशासन इस पार्टी में नहीं है। कांग्रेस में जिसको जहां टिकट मिल जाता है, वो शीश नवांकर चला जाता है। 

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