इनदिनों भारतीय भाषाओं और हिंदी के बीच रार छिड़ी हुई है। इस बार भी रार की जड़ अंग्रेज़ी है। सरकारी सोशल मीडिया में हिंदी में काम करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी टीम ने सर्कुलर जारी किया तो बवेलाल खड़ा हो गया। दक्षिण भारत से जे. जयललिता से लेकर कश्मीर के उमर अब्दुल्ला तक ने विरोध जता दिया। इस सर्कुलर को हिंदी के अख़बारों और टीवी चैनलों ने भाव नहीं दिया लेकिन अंग्रेजी के अख़बारों और टीवी चैनलों ने तिल का ताड़ बना दिया। इस ख़बर को इस तरह से पेश किया गया मानों मोदी की टीम हिंदी को बढ़ावा देने के लिए दूसरी भारकतीय भाषाओं को हाशिए पर डाल रही है।
अगर राजभाषा विभाग को ये अहसास होता कि सोशल साइटों पर अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी के भी इस्तेमाल की सलाह देने वाली उसकी एक चिट्ठी इस कदर गुल खुलायेगी तो शायद ये चिट्ठी जारी ही नहीं होती। असलियत तो ये है कि अंग्रेज़ि में पढ़े लिखे बाबू लोग जो देश चलाने का दम भरते हैं, वो हिंद में काम काज कर ही नहीं सकते। ये तो महज़ औपचारिकता भर थी। जैसे कि एक सुहागिन अगर सिंदूर न पहने तो वो सुहागिन नहीं कहलाती। ठीक उसी अंदाज़ में ये सर्कुलर जारी किया गया था। ये राजभाषा और बोली के प्रति लगाव नहीं था। लेकिन इसे सियासी रंग दिया गया। विरोध करने वालों के दिल में ये बात थी थी कि जनसंघ ने हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान का नारा दिया था। उस संगठन से निकले मोदी कहीं उसे एजेंडा को पूरा करने में तो नहीं लगे हैं।
असली सवाल यह है कि एक छोटे से महकमे से चली इस चिट्ठी से या इसकी मार्फत दिखने वाली हिंदी की वकालत से अंग्रेजी या दूसरी भारतीय भाषाओं के राजनीतिक नेतृत्व के पांव क्यों कांपने लगे? आखिर जयललिता और करुणानिधि को तमिल अस्मिता और उमर अब्दुल्ला और अखिलेश यादव को उर्दू की इज्जत का ख्याल क्यों सताने लगा? क्या वाकई आज की तारीख में हिंदी भारत की ऐसी विशेषाधिकार संपन्न भाषा है जो बाकी भाषाओं के हित या उनका हिस्सा मार सके? इस सवाल पर ठीक से विचार करें तो पाते हैं कि दरअसल भारतीय भाषाओं और हिंदी के बीच झगड़ा खड़ा करने का काम अंग्रेजी ही कर रही है। अंग्रेजी के चैनलों ने ये भी ठीक से नहीं बताया कि दरअसल केंद्र सरकार का ये सर्कुलर बस केंद्रीय महकमों और उन राज्यों तक सीमित है, जहां हिंदी बोली जाती है। उनका बाकी राज्यों के कामकाज से वास्ता नहीं है। इसी का नतीजा था कि दक्षिण भारतीय राज्यों को अचानक हिंदी के वर्चस्व का डर सताने लगा और वे फिर अंग्रेजी की छतरी लेकर खड़े हो गए।
ये विरोध असल में मातृभाषा के लिए प्रेम नहीं था। ये विरोध हिंदी की विरोध था। याद कीजिए अगर आप दक्षिण भारत या पश्चिम बंगाल के किसी भी शहर में ट्रेन से गए हों तो स्टेशन और प्लेटफॉर्म पर लिखे हिंदी पट्टी पर चारकोल लगा दिया गया है। जबकि उस स्टेशन पर हिंदी और अंग्रेजी के अलावा क्षेत्रीय भाषाओं में जगह का नाम लिखा हुआ है। अगर इन राज्यों और नेताओं को हिंदी से इतनी नफरत है तो फिर वो अंग्रेजी से इतना प्रेम क्यों कतरते हैं। क्यों नहीं अंग्रेज़ी के शिलापट्टियों पर कालिख पोतते हैं।
सवाल है कि अंग्रेजी यह खेल क्यों करती है? क्योंकि असल में अंग्रेजी इस देश में शोषण और विशेषाधिकार की भाषा है। इस देश की एक फीसदी आबादी भी अंग्रेजी को अपनी मातृभाषा या मुख्य भाषा नहीं मानती। लेकिन देश के सारे साधनों-संसाधनों पर जैसे अंग्रेजी का कब्ज़ा है। अंग्रेजी की इस हैसियत के आगे हिंदी ही नहीं, तमाम भारतीय भाषाएं दोयम दर्जे की साबित होती हैं। इस लिहाज से देखें तो हिंदी नहीं, अंग्रेजी भारतीय भाषाओं की असली दुश्मन है। रोटी और रोजगार के सारे मौक़े अंग्रेजी को सुलभ हैं। सरकारी और आर्थिक तंत्र अंग्रेजी के बूते ही चलता है। पढ़ाई-लिखाई का माध्यम अंग्रेजी हुई जा रही है।
बहुत सारे हिंदीवालों को यह गुमान है कि हिंदी अब इंटरनेट में पसर गई है। अब तो हॉलीवुड की बड़ी-बड़ी़ फिल्में भी हिंदी में डब करके दिखाई जाती हैं। इससे उन्हें लगता है कि हिंदी का संसार फैल रहा है। लेकिन सच्चाई यह है कि ये हिंदी बस एक बोली की तरह बची हुई है। जिसका बाज़ार इस्तेमाल करता है। ये तर्क दिया जाता है कि अंग्रेजी हमें दुनिया से जोड़ रही है।.
लेकिन, एक दूसरी हकीकत और भी है। अंग्रेजी ने भारत को दो हिस्सों में बांट डाला है। एक खाता-पीता- अघाता.. इक्कीसवीं सदी के साथ कदम बढ़ाता 30-35 करोड़ की आबादी वाला भारत है, जो अंग्रेजी जानता है या जानना चाहता है और भारत पर राज करता है या राज करना चाहता है। दूसरी तरफ, 80 करोड़ का वो गंदा-बजबजाता भारत है, जो हिंदी, तमिल, तेलुगू या कन्नड़ बोलता है। हिंदी के खाने वाले और अंग्रेजी के गानेवालों को कौन समझाए कि हिंदी भारत को जोड़नेवाली भाषा है।
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