केवल दो सालों में ही उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और नौजवान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का जादू उतरने लगा है। सबसे पहले ये तो सरकार अपने धतकर्मों और करतूतों से ही जनता की नज़रों से गिर गई। रही सही कसर नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल की आम जनता पार्टी की लहर ने पूरी कर दी। कहां तो प्रचंड बहुमत से सरकार बनाने वाले अखिलेश यादव ये सपना देख रहे थे कि यूपी में उनका एकछत्र राज होगा तो दिल्ली की गद्दी पर उनके पिता मुलायम सिंह यादव बैठेंगे। लेकिन उनके अरमानों पर पानी फिरते दिखने लगा है और मुख्यमंत्री इसकी खीज मीडिया पर उतारने लगे हैं। हालिया प्रेस कांफ्रेस में अखिलेश यादव की तिलमिलाहट और गुस्से ने इसकी बानगी भी पेश कर दी। ये साबित कर दिया कि हर मोर्चे पर फेल साबित हो रही अखिलेश की सरकार अब अपनी आलोचना को बर्दाश्त करने का भी माद्दा खो चुकी है। दरअसल, अखिलेश यादव और उनकी समाजवादी पार्टी की इस बौखलाहट के पीछे कई कारण हैं। सबसे बड़ी बात तो ये है जिस तरह से दिल्ली में दीगर क़िस्म की राजनीति की लौ दिखाकर आम आदमी पार्टी ने आम लोगों का भरोसा जीता। ठीक उसी तरह से दो साल पहले अखिलेश यादव ने भी यूपी की जनता को सपने दिखाए थे। जनता को भी लगा था कि ये नौजवान वाकई यूपी को बदलने की हसरत रखता है। जनता ने प्रचंड बहुमत के साथ अखिलेश यादव को सत्ता की चाबी सौंप दी। लेकिन सत्ता में आते ही समाजवाद का असली चेहरा एक बार फिर सबके सामने आ गया। यूपी में सरकार के नाम पर केवल यादव परिवार का ही बोलबाला है। सूबे में कहने को तो मुख्यमंत्री है। लेकिन जनता देख रही है कि यादव परिवार के आधा दर्जन लोग सुपर सीएम के तौर पर बर्ताव कर रहे हैं। सरकार भी पहले ही दिन से तुष्टीकरण की सियासत में उलझ कर रह गई। नौसिखिया मुख्यमंत्री को लालफीताशाही ने अपनी चंगुल में जकड़ लिया। रही सही कसर मुज़फ्फरनगर के दंगों ने पूरी कर दी। इस दंगे की आंच में हाथ सेंकने का इरादा रखनेवाली समाजवादी पार्टी के हाथ ही झुलस कर रह गए। इस एक दंगे की वजह से सरकार को कई मोर्चों पर शर्मिंदगी उठानी पड़ी। इस दंगे से पहले तक पार्टी पर मुस्लिमपरस्त होने का आरोप लगता था। सरकार ने इस छवि को भुनाने की कोशिश भी की। दंगे के दौरान उस पर एक तरफा कार्रवाई करने का कलंक भी लगा। लेकिन शरणार्थी शिविरों में ठंड से ठिठुरकर शिशुओं और बच्चों की जब मौत हुई तब सरकार ने ऐसे बयान दिए कि इंसानियत शर्मसार हो गई। सरकार को ये कहने में तनिक भी शर्म नहीं आई कि ठंड से किसी की मौत नहीं होती। ऊपर से पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के बयान के बाद अखिलेश यादव की सरकार के अफसरों ने जिस तरह से डंडे के दम पर शरणार्थी शिविरों में रह रहे लोगों को उजाड़ फेंका, उससे ये तबका भी नाराज़ हो गया। दूसरा तबका यानी यादव वोट बैंक पहले से ही सरकार की तुष्टीकरण की नीति से नाराज़ चल रहा था। मोदी और केजरीवाल की लहर के बीच अभी मुज़फ्फरनगर कांड की तपिश ठंडी भी नहीं पड़ी थी कि सरकार की करतूत ने लोगों के ग़ुस्से में घी डालने का काम किया। सरकार ने सैकड़ों करोड़ रुपए फूंककर मुलायम सिंह यादव के घर सैफई में तमाशा कर डाला। कहने को तो इस तमाशे से लोकगीत, लोक संगीत और स्थानीय खेलकूद को बढ़ावा मिलता है। लेकिन ये लोगों की समझ में नहीं रहा कि डेढ़ इश्किया माधुरी दीक्षित के कूल्हे पर थिरक रहे समाजवाद और दंबग सलमान ख़ान के कॉमों में दिखती ‘सरकार’ से किस तरह की लोकसंस्कृति फलेगा-फूलेगा। इस कथित लोकसंस्कृति को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने 300 करोड़ रुपए फूंक डाले। लेकिन राम मनोहर लोहिया और जय प्रकाश नारायण के आदर्शों पर चलने का दम भरनेवाली अखिलेश यादव की समाजवादी सरकार के पास आलोचनाओं को सहने का धीरज भी नहीं बचा है। भरी महफिल में मुख्यमंत्री इस तरह की बातें करने लगे कि मानों जैसे कोई खिसयानी बिल्ली खंबा नोच रही हो। अपनी करनी पर पर्दा डालने के लिए मीडिया पर अपनी खीज उतार रहे हैं। मुख्यमंत्री होकर आरोप लगा रहे हैं कि एक बड़े अख़बार के बड़े संपादक को राज्यसभा से नहीं भेजा तो बदले में आकर उनके खिलाफ ख़बर छाप रहे हैं। शायद मुख्यमंत्री के सलाहकारों और सूचना विभाग ने उन्हें सही जानकारी दी कि अख़बार के मालिक या संपादक होने का अर्थ पत्रकार होना नहीं है। वो व्यापारी भी हो सकता है। एक पार्टी के मुखिया और मुख्यमंत्री ने एक अख़बार के मालिक के साथ समझौता किया था। तो फिर वो पूरी बिरादारी को कैसे आईना दिखा सकते हैं। झुंझलाए मुख्यमंत्री टीवी मीडिया को कोस रहे हैं कि हेलीकॉप्टर और हवाई जहाज़ में बैठकर इंटरव्यू दिया लेकिन दिखाया नहीं। इन नौसिखिए और अनाड़ी मुख्यमंत्री को राज काज संभालने के साथ साथ मीडिया मैनेजमैंट के गुर सीखने बाकी हैं। जिस पार्टी के मुखिया ने उन्हें मुख्यमंत्री के पद पर उन्हें बिठाया हो और वही ( मुलायम सिंह यादव) बार-बार सार्वजनिक मंच पर अपने बेटे की सरकार को लानत-मलानत भेजें तो क्या मीडिया इसे दिखाना बंद कर दे? जिस प्रदेश में समाजवादी पार्टी के मंत्री, सांसद, विधायक और नेता सड़कों पर खुलेआम गुंडागर्दी कर रहे हों और मुलायम सिंह यादव ही ऐसे नेताओं को बाज़ आने की नसीहत दे रहे हों तो क्या मीडिया इसे दिखाना बंद कर दे? लाल- नीली बत्ती की बंदरबांट पर जब अदालत ही कान उमेठे तो क्या इसे मीडिया दिखाना बंद कर दे? सच तो ये है कि जुमा-जुमा चार दिन के मुख्यमंत्री को शासन और राजनीति का ककहरा सीखने के लिए अभी लंबा समय तय करना है। पहले वो अपने परिवार और पार्टी को संभाले। फिर बाद में आकर किसी को नसीहत दें तो शायद जनता उनकी बात पर भरोसा भी करे। वर्ना पहले से ही लालफीताशाही के जाल में उलझे मुख्यमंत्री विवादों के भंवर में उलझ कर रह जाने वाले नेता के तौर पर इतिहास में याद रखे जाएंगे।
Saturday, January 11, 2014
जनता की नज़रों से उतर गए अखिलेश यादव
केवल दो सालों में ही उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और नौजवान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का जादू उतरने लगा है। सबसे पहले ये तो सरकार अपने धतकर्मों और करतूतों से ही जनता की नज़रों से गिर गई। रही सही कसर नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल की आम जनता पार्टी की लहर ने पूरी कर दी। कहां तो प्रचंड बहुमत से सरकार बनाने वाले अखिलेश यादव ये सपना देख रहे थे कि यूपी में उनका एकछत्र राज होगा तो दिल्ली की गद्दी पर उनके पिता मुलायम सिंह यादव बैठेंगे। लेकिन उनके अरमानों पर पानी फिरते दिखने लगा है और मुख्यमंत्री इसकी खीज मीडिया पर उतारने लगे हैं। हालिया प्रेस कांफ्रेस में अखिलेश यादव की तिलमिलाहट और गुस्से ने इसकी बानगी भी पेश कर दी। ये साबित कर दिया कि हर मोर्चे पर फेल साबित हो रही अखिलेश की सरकार अब अपनी आलोचना को बर्दाश्त करने का भी माद्दा खो चुकी है। दरअसल, अखिलेश यादव और उनकी समाजवादी पार्टी की इस बौखलाहट के पीछे कई कारण हैं। सबसे बड़ी बात तो ये है जिस तरह से दिल्ली में दीगर क़िस्म की राजनीति की लौ दिखाकर आम आदमी पार्टी ने आम लोगों का भरोसा जीता। ठीक उसी तरह से दो साल पहले अखिलेश यादव ने भी यूपी की जनता को सपने दिखाए थे। जनता को भी लगा था कि ये नौजवान वाकई यूपी को बदलने की हसरत रखता है। जनता ने प्रचंड बहुमत के साथ अखिलेश यादव को सत्ता की चाबी सौंप दी। लेकिन सत्ता में आते ही समाजवाद का असली चेहरा एक बार फिर सबके सामने आ गया। यूपी में सरकार के नाम पर केवल यादव परिवार का ही बोलबाला है। सूबे में कहने को तो मुख्यमंत्री है। लेकिन जनता देख रही है कि यादव परिवार के आधा दर्जन लोग सुपर सीएम के तौर पर बर्ताव कर रहे हैं। सरकार भी पहले ही दिन से तुष्टीकरण की सियासत में उलझ कर रह गई। नौसिखिया मुख्यमंत्री को लालफीताशाही ने अपनी चंगुल में जकड़ लिया। रही सही कसर मुज़फ्फरनगर के दंगों ने पूरी कर दी। इस दंगे की आंच में हाथ सेंकने का इरादा रखनेवाली समाजवादी पार्टी के हाथ ही झुलस कर रह गए। इस एक दंगे की वजह से सरकार को कई मोर्चों पर शर्मिंदगी उठानी पड़ी। इस दंगे से पहले तक पार्टी पर मुस्लिमपरस्त होने का आरोप लगता था। सरकार ने इस छवि को भुनाने की कोशिश भी की। दंगे के दौरान उस पर एक तरफा कार्रवाई करने का कलंक भी लगा। लेकिन शरणार्थी शिविरों में ठंड से ठिठुरकर शिशुओं और बच्चों की जब मौत हुई तब सरकार ने ऐसे बयान दिए कि इंसानियत शर्मसार हो गई। सरकार को ये कहने में तनिक भी शर्म नहीं आई कि ठंड से किसी की मौत नहीं होती। ऊपर से पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के बयान के बाद अखिलेश यादव की सरकार के अफसरों ने जिस तरह से डंडे के दम पर शरणार्थी शिविरों में रह रहे लोगों को उजाड़ फेंका, उससे ये तबका भी नाराज़ हो गया। दूसरा तबका यानी यादव वोट बैंक पहले से ही सरकार की तुष्टीकरण की नीति से नाराज़ चल रहा था। मोदी और केजरीवाल की लहर के बीच अभी मुज़फ्फरनगर कांड की तपिश ठंडी भी नहीं पड़ी थी कि सरकार की करतूत ने लोगों के ग़ुस्से में घी डालने का काम किया। सरकार ने सैकड़ों करोड़ रुपए फूंककर मुलायम सिंह यादव के घर सैफई में तमाशा कर डाला। कहने को तो इस तमाशे से लोकगीत, लोक संगीत और स्थानीय खेलकूद को बढ़ावा मिलता है। लेकिन ये लोगों की समझ में नहीं रहा कि डेढ़ इश्किया माधुरी दीक्षित के कूल्हे पर थिरक रहे समाजवाद और दंबग सलमान ख़ान के कॉमों में दिखती ‘सरकार’ से किस तरह की लोकसंस्कृति फलेगा-फूलेगा। इस कथित लोकसंस्कृति को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने 300 करोड़ रुपए फूंक डाले। लेकिन राम मनोहर लोहिया और जय प्रकाश नारायण के आदर्शों पर चलने का दम भरनेवाली अखिलेश यादव की समाजवादी सरकार के पास आलोचनाओं को सहने का धीरज भी नहीं बचा है। भरी महफिल में मुख्यमंत्री इस तरह की बातें करने लगे कि मानों जैसे कोई खिसयानी बिल्ली खंबा नोच रही हो। अपनी करनी पर पर्दा डालने के लिए मीडिया पर अपनी खीज उतार रहे हैं। मुख्यमंत्री होकर आरोप लगा रहे हैं कि एक बड़े अख़बार के बड़े संपादक को राज्यसभा से नहीं भेजा तो बदले में आकर उनके खिलाफ ख़बर छाप रहे हैं। शायद मुख्यमंत्री के सलाहकारों और सूचना विभाग ने उन्हें सही जानकारी दी कि अख़बार के मालिक या संपादक होने का अर्थ पत्रकार होना नहीं है। वो व्यापारी भी हो सकता है। एक पार्टी के मुखिया और मुख्यमंत्री ने एक अख़बार के मालिक के साथ समझौता किया था। तो फिर वो पूरी बिरादारी को कैसे आईना दिखा सकते हैं। झुंझलाए मुख्यमंत्री टीवी मीडिया को कोस रहे हैं कि हेलीकॉप्टर और हवाई जहाज़ में बैठकर इंटरव्यू दिया लेकिन दिखाया नहीं। इन नौसिखिए और अनाड़ी मुख्यमंत्री को राज काज संभालने के साथ साथ मीडिया मैनेजमैंट के गुर सीखने बाकी हैं। जिस पार्टी के मुखिया ने उन्हें मुख्यमंत्री के पद पर उन्हें बिठाया हो और वही ( मुलायम सिंह यादव) बार-बार सार्वजनिक मंच पर अपने बेटे की सरकार को लानत-मलानत भेजें तो क्या मीडिया इसे दिखाना बंद कर दे? जिस प्रदेश में समाजवादी पार्टी के मंत्री, सांसद, विधायक और नेता सड़कों पर खुलेआम गुंडागर्दी कर रहे हों और मुलायम सिंह यादव ही ऐसे नेताओं को बाज़ आने की नसीहत दे रहे हों तो क्या मीडिया इसे दिखाना बंद कर दे? लाल- नीली बत्ती की बंदरबांट पर जब अदालत ही कान उमेठे तो क्या इसे मीडिया दिखाना बंद कर दे? सच तो ये है कि जुमा-जुमा चार दिन के मुख्यमंत्री को शासन और राजनीति का ककहरा सीखने के लिए अभी लंबा समय तय करना है। पहले वो अपने परिवार और पार्टी को संभाले। फिर बाद में आकर किसी को नसीहत दें तो शायद जनता उनकी बात पर भरोसा भी करे। वर्ना पहले से ही लालफीताशाही के जाल में उलझे मुख्यमंत्री विवादों के भंवर में उलझ कर रह जाने वाले नेता के तौर पर इतिहास में याद रखे जाएंगे।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
1 comment:
First time i read your blog - its too good-- few articles i have read all were on dot - :)
Post a Comment