Monday, January 18, 2010
सोनिया का त्याग मजबूरी थी और ज्योति बाबू का त्याग आदर्श
अब सबसे बड़ा सवाल ये है कि ज्योति बसु को इतिहास किस तरह से याद करेगा। क्योंकि पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री रहे ज्योति बसु के व्यक्तित्व बहुत सारे आयाम हैं। इनमें से किसी एक को केंद्र में रखकर ज्योति बसु का ख़ाका तैयार करना आसान नहीं है। ज्योति बसु के व्यक्तित्व, प्रशासन और पार्टी में में नेतृत्व क्षमता का आंकलन करना सहज नहीं है। लेकिन इतना तो तय है कि इतिहास के पन्नों में वो प्रधानमंत्री की कुर्सी ठुकरानेवाले पहले और आख़िरी राजनेता के तौर पर याद किए जाएंगे। वैसे प्रधानमंत्री की कुर्सी तो सोनिया गांधी ने भी ठुकराई। लेकिन उसकी तुलना ज्योति बसु से नहीं की जा सकती। क्योंकि सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री को लेकर विरोध था। सोनिया ने बेशक़ प्रधानमंत्री की कुर्सी ठुकराई हो। लेकिन उन्हे मालूम था कि इस पद के लिए उनके सामने कई ब्रेकर हैं। कभी पार्टी के अंदर ही विदेशी मूल का मुद्दा झेल चुकी सोनिया गांधी विपक्ष के भी निशाने पर थीं। लेकिन ज्योति बाबू के सामने कोई अवरोध नहीं था। वो चाहते तो प्रधानमंत्री बन सकते थे। दुनिया कुर्सी के पीछे भागती है और ज्योति बसु के पीछे प्रधानमंत्री की कुर्सी भाग रही थी। लेकिन पार्टी के अनुशासन में बंधे ज्योति बसु ने मोह तजना ही बेहतर समझा।
देश अभी खिचड़ी सरकार का अनुभव ले रहा था। इस तरह का अनुभव देश ने मोरारजी देसाई और चरण सिंह के भी दौर में देखा था। लेकिन 1996 का दौर काफी बदल चुका था। देश ने दो और समाजवादियों की खिचड़ी सरकार का अनुभव हासिल कर लिया था। विश्वनाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर की सरकारों से जी खट्टा हो चुका था। देवेगौड़ा की मजबूरियों को भी लोगों ने देखा। ऐसे में सबको समझ में आया कि अगर ज्योति बसु के हाथ में देश की कमान दी जाए तो वो आसानी से सरकार चला लेंगे। लोगों को ये भरोसा उनके मुख्यमंत्रित्व काल से हो गया था। जब कई पार्टियों की मिल जुली सरकार कुछ ही महीने में भरभरा जाती थीं। तब ये बंगाल का लाल बड़ी शान से कई पार्टियों की बाहें थामें नया रेकॉर्ड बना रहा था। ये हुनर ज्योति बसु में ही था कि आरएसपी, फॉरवर्ड ब्लॉक औऱ सीपीआई को साथ लेकर बग़ैर किसी टांय-टांय के सरकार चला लें। ज्योति बसु की इस इमेज के लिए प्रमोद दास गुप्ता, सरोज मुखर्जी, शैलेन दासगुप्ता औऱ अनिल बिश्वास ने भी ख़ूब मेहतन की। ज्योति बसु का क़द संगठन से भी बड़ा बनाने की कोशिश हुई। लेकिन जिस पार्टी ने ज्योति बसु की इमेज पार्टी से भी बड़ा करने के लिए दिन- रात एक की, उसी पार्टी ने रातों –रात अपने महानायक दो देश की सत्ता की सबसे बड़ी कुर्सी ठुकराने को कहा। ज्योति बसु में भी इतना सत्साहस था कि उन्होने पार्टी के आदेश को सिर माथे से लगाया। लेकिन साथ ही चेता भी दिया कि पार्टी ने ऐतिहासिक भूल की है।
ज्योति बसु की फितरत थी सत्ता से टकराने की। उनकी ये ख़ासियत थी कि सत्ता से टकराने के बावजूद सत्ताधारी दलगत राजनीति से ऊपर उठकर उनसे सलाह लेने के लिए चल कर आते भी थे। ज्योति बसु से पहले और बाद में ये सुख किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री को नसीब नहीं हुआ है। देश में चाहें इंदिरा गांधी की सरकार रही हो, राजीव गांधी की रही हो, नरसिम्हा राव की रही हो या फिर वीपी सिंह या चंद्रशेखर की सरकार रही। सबको कभी न कभी ज्योति बसु के पास चल कर आना ही पड़ा है।
टकराने की ये आदत ज्योति बसु की बहुत पुरानी रही है। 1957 से लेकर 1967 तक के दौरान टकराने की शैली ने उनका क़द बाक़ी नेताओं से बड़ा कर दिया था। कांग्रेस से अलग होने के बाद बनी मिली जुली सरकार में उन्हे पहली बार मंत्री बनने का सुख मिला। पद मिला श्रम मंत्री का। श्रम की अहमियत को ज्योति बाबू ने ख़ूब समझा। मंत्री होने के बावजूद ज्योति बाबू ने उद्योगपतियों को नकले कस दी। मेहनतकश मज़दूरों के हक़ की लड़ाई लड़ी। ज्योति बाबू की पहचान घेराव मंत्री की हो गई। इसके बाद अगली सरकार में उनका विभाग बदला दिया गया। उन्हे परिवहन मंत्री बनाया गया। परिवहन मंत्री बनने के बाद कोलकाता ट्रांसपोर्ट कॉरपोरेशन का नक्शा बदलने की बीड़ा उठाया। राज्य आज भी उस परिवहन आंदोलन को याद करता है। सोच आगे की थी इसलिए सत्ता से टकराने में कभी हिचकिचाए नहीं। राजीव गांधी सरकार से हल्दिया पेट्रो केमिकल्स के लिए मदद मांगी। अपने समय की दूरगामी और अतिमहात्वाकांछी अभियान था। केंद्र की कांग्रेस सरकार ने राज्य की वान मोर्चा सरकार को मदद करने से मना कर दिया। इसके बाद ज्योति बाबू ने जो कर दिखाया, उसे देखकर कांग्रेस भी शर्मिंदा हुई। इस परियोजना के लिए ज्योति बसु ने लोगों से मदद की अपील की। लोगों ने ख़ून बेचकर सरकार को पैसा दिया। सरकारी और ग़ैर सरकारी कर्मचरारियों के एक दिन की पगार दी। आख़िरकार हल्दिया पेट्रोकेमिकल बन कर तैयार हो गया। ये अलग बात है कि वो ज्योति बाबू के सपने को साकार नहीं कर सका।
टकराने की इसी आदत से बंगाल मीडिया का एक बड़ा तबका उनसे खुश नहीं रहता था। ज्योति बसु ने कभी इसकी परवाह भी नहीं की। ज्योति बसु का मानना था कि उनका राफ्ता जनता से है। ऐसे में उन्हे किसी को माध्यम बनाने की ज़रूरत नहीं है। ज्योति बसु का यही बेबाकीपन मीडिया का सालता रहा। मीडिया ने ज्योति बसु की आलोचना करने का कोई मौक़ा गंवाया भी नहीं। अस्सी के दशक के आख़िरी दिनों की बात है। बंगाल के एक बहुत बड़े अख़बार घराने के एक पत्रकार संस्थान से अलग होने के बाद अपना एक अख़बार शुरू किया। धीरे-धीरे अख़बार चल पड़ा। इस अख़बार ने नारा ही दिया था कि वो केवल भगवान से डरता है। अख़बार ने सरकार, सीपीएम और ख़ास तौर पर ज्योति बसु को निशाना बनाना शुरू किया। आज की एक महिला केंद्रीय मंत्री तबके कांग्रेस नेता सुब्रतो मुखर्जी नामक बरगद के सहारे बेल बनकर फल फूल रही थीं। अख़बार का उस नेत्री के साथ अच्छा राफ्ता बन गया। बात जब हद से आगे बढ़ गई तब ज्योति बसुने ख़ुलासा किया कि बड़े घराने के अख़बार समह से निकलने के बाद वो पत्रकार-संपादक महोदय उनके पास मदद मांगेन आए थे। उन्होने उसे सस्ती दर पर न केवल सरकारी ज़मीन दी। बल्कि प्रिटिंग प्रेस खोलने के लिए बैंक से लोन दिलाने में मदद भी की। ज्योति बसु के इस बयान के बाद अख़बार ने माना कि वो मुख्यमंत्री के पास मदद के लिए गया था। लेकिन पत्रकारिता के उद्देश्य से न भटकने की बात की। वो अख़बार 1987 से लगातार हर बार वाममोर्चा के हारने और महिला नेता के मुख्यमंत्री बनने की मुहिम छेड़ता है। ज्योति बसु के निधन के बाद भी उस अख़बार ने पहले पन्ने पर ये सवाल खड़ा किया कि सीपीएम को अब आक्सिजन कौन देगा ? क्योंकि ज्योति बसु के आक्सिजन से पार्टी चलती थी। ज्योति बसु भी आख़िरी के सत्रह दिनों आक्सिजन के सहारे ज़िंदा रहे।
मीडिया के इसी रोल से ज्योति बसु लगातार चिढ़ते रहे। एक बार सार्वजनिक मंच से उन्होने मीडिया के लिए अपशब्द कहे थे। मीडिया को बहुत बाद में अहसास हुआ कि उन्होने संस्कृत में उन्हे अपशब्द कहे हैं। एक बार ऐसे ही एक महिला नेता राइटर्स बिल्डिंग पहुंच गई। तब वो केंद्र में राज्य मंत्री थीं। सचिवालय पहुंचकर उन्होने हंगामा शुरू कर दिया। एक सीनियर आईपीएस अफसर ने रोकने की कोशिश की तो मंत्री का हूल देते हुए उसे थप्पड़ मार दिया। मीडिया का एक भी कैमरा मार खाते अफसर के लिए नहीं चमका। लेकिन जब उस अफसर ने महिला मंत्री की पिटाई शुरू की तो दनादन फ्लैश चमकने लगे। आपा खो चुके अफसर ने मीडिया को भी नहीं बख़्शा। बहुतों के हाथ –पैर टूटे। मीडिया ने सरकार से माफी मांगने को कहा। दी –तीन दिनों तक धरना-प्रदर्शन भी किया। लेकिन सरकार ने माफी मांगने से साफ इनकार कर दिया।
ज्योति बाबू ने व्यक्तिगत जीवन में समझौता नहीं किया। ज्योति बसु ने कभी धर्म-कर्म में यक़ीन नहीं किया। वो धर्म के विरोधी नहीं थे। लेकिन कट्टर धार्मिकता के घोर विरोधी थे। एक बार उनकी पत्नी कमला बोस ने तारकेश्वर जाकर पूजा करने की ठानीं। ज्योति बसु ने उन्हे रोका नहीं। लेकिन सरकारी गाड़ी देने से मना कर दिया। कमला बसु को लोकल ट्रेन से तारकेश्वर जाकर पूजा करनी पड़ी। अख़बारों ने इस बात को ख़ूब उछाला कि कॉमेरेड ज्योति बसु की पत्नी ने पूजा की। लेकिन किसी अख़बार ने ये नहीं छापा कि मुख्यमंत्री की पत्नी लाल बत्ती वाली या किसी और गाड़ी से तारकेश्वर क्यों नहीं गई ?
ज्योति बाबू पर मीडिया ने भ्रष्टाचार के आरोप लगाने का कोई मौक़ा भी नहीं छोड़ा। सबेस पहले तो ये अभियाना चलाया गया कि पूरे राज्य को कॉमरेड बनाने का बीड़ा उठानेवाले ज्योति बसु अपने इकलौते बेटे को कॉमेरड क्यों नहीं बना पाए ? चंदन बसु क्यों उद्योगपति बन गए ?
हद तो तब हो गई जब राज्य के लोक निर्माण मंत्री और आरएसपी नेता जतिन चक्रवर्ती ने आरोप लगा दिया कि ज्योति बसु की जानकारी में बंगाल लैंप घोटाला हुआ है। मीडिया महीनों बसु के पीछे पड़ा रहा। रोज़ नए-नए घोटाले खोजे जाने लगे। लेकिन बसु ने सफाई नहीं दी। विधानसभा के अंदर तब के कांग्रेस नेताओं (अब के तृणमूल नेताओं ) ने हंगामा किया। ज्योति बसु सयंत रहे। लेकिन जब कांग्रेस विधायकों का शोर कम नहीं हुआ तो उन्होने सदन के अंदर साफ-साफ कहा कि अंदर आपलोग मेरे बेटे के लिए हंगामा करते हो। बाहर उससे दोस्ती निभाते हो। उन्होने सख़्त लहज़े में कहा कि उन्हे मालूम है कि चंदन बसु के साथ कौन-कौन नेता कहां शाम गुज़ारता है। लेकिन वो बोलेंगे नहीं। इतना सुनता ही विधानसभा में सन्नाटा पसर गया। एक दिन ज्योति बसु ने जतिन चक्रवर्ती को मंत्रिमंडल से बाहर कर दिया। जतिन उर्फ जैकी दा ज्योति बाबू के अच्छे दोस्तों में से थे। मरने से पहले उन्होने एक इंटरव्यू में साफ कहा कि बंगाल लैंप घोटाले में ज्योति बाबू का कोई लेना –देना नहीं था। उनका बेटा टेंडर भरने आया था। वो उसे बचपन से जानते हैं। उन्होने चंदन बसु को टेंडर दिलाने में मदद की। लेकिन ये सब ज्योति बसु की जानकारी या निर्देश के बग़ैर हुआ। यानी जो दाग़ मीडिया ने ज्योति बाबू पर लगाए थे, उसे जैकी दा ने जाते-जाते साफ कर दिया।
ज्योति बाबू उत्तर चौबीस परगना के सतगछिया विधानसभा से लगातार चुनाव जीतते रहे। ममता बनर्जी ने कई बार उन्हे अपने ख़िलाफ लड़ने के लिए दक्षिण कोलकाता बुलाया। लेकिन ज्योति बाबू ने इसका जवाब देना भी ज़रूरी नहीं समझा। ममता ने अपनी सबसे ख़ासम ख़ास सहेली सोनल को सतगछिया से मैदान में उतार दिया। सोनल के उम्मीदवार बनने के बाद ज्योति बसु ने बयान दिया कि अब वो प्रचार करने भी नहीं जाएंगे। अब जनता को तय करना है कि वो किसे अपना नुमाइंदा बनाना चाहती है। ममता और कांग्रेस के तमाम बड़े नेताओं ने सतगछिया में एड़ी चोटी का ज़ोर लगा दिया। नतीजे चौंकाने वाले आए। इतनी कोशिश के बाद भी ममता की ख़ास सहेली बहुत भारी मतों के अंतर से चुनाव हार गई थीं।
भारतीय राजनीति में कई कारणों से ज्योति बाबू को हमेशा याद किया जाएगा। जिस राज्य में जहां कभी कांग्रेस का एक छत्र राज होता था। उस राज्य से कांग्रेस का नामो निशान मिट गया। कांग्रेस को वो राज हासिल करने के लिए ममता बनर्जी का सहारा लेना पड़ रहा है। ये वही ममता हैं, जो कभी बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार में मंत्री भी रह चुकी हैं। ज्योति बाबू एक ईमानदार राजनेता और मुख्यमंत्री के तौर पर याद किए जाएंगे, जिन्होने एक पैसा भी अपने लिए नहीं बनाया। ज्योति बाबू प्रधानमंत्री की कुर्सी ठुकराने के लिए भी याद किए जाएंगे। क्योंकि उनका त्याग यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी से बिलकुल अलग था।
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6 comments:
nice
apki patrkarita to mene nahi dekhi h sir lekin aap ne jo likha h koi kavi se kam nahi
बहुत अच्छा ।
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good chandanji...
bhut sahi likha hai aap ne
likht raho yuhi thank you
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par aap ka swagat hai
bhut pasand aaya tarif ke kabile hay aapaki vichardhara.
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