Tuesday, June 23, 2009

हर पल , हर लम्हा याद आते हैं पापा


सत्ताइस जून को पापा को हमसे बिछड़े बारह साल पूरे हो जाएंगे। इन बारह साल के दौरान एक भी पल ऐसा नहीं रहा होगा, जब पापा की याद न आई हो। हर मोड़ पर पापा याद आए। चाहें वो मौक़ा ख़ुशी का रहा हो या फिर ग़म का। कभी अकेले में बैठकर सोचता हूं तो लगता है कि दुनिया में कितना अकेला हूं। एक –एक कर के वो सब साथ छोड़ गए, जिसकी कभी मैंने कल्पना नहीं की। चाहें वो मेरी बुआ ( बाबा की बुआ) हों, बाबा हों, पापा हों, नाना हों या फिर मम्मी।
अभी हाल की बात है। कोलकाता में कुछ लोग पापा का जन्मदिन मना रहे थे। इसके बाद एक मूर्धन्य पत्रकार ने एक वेब साइट पर स्टोरी की। एसपी की याद में हुई संगोष्टी में वक्ता आठ और सुनने वाले पांच। मैंने उस ख़बर में पाया कि पापा का जन्म दिन की तारीख़ वो नहीं हैं, जिसे वो मना रहे हैं। ये अलग बात है कि पापा ने जीते जी कभी अपना जन्मदिन नहीं मनाया। उनका मानना था कि धरती पर आकर कोई महान काम नहीं किया है, जो इसका जश्न मनाऊं। ये ढकोसला, दिखावा और आडंबर है। पापा का जन्मदिन मनानेवाले अगर उनके क़रीबी होते तो शायद उनकी भावना को समझकर जन्म दिन नहीं मनाते।
इस ख़बर को देखकर मैंने अपनी आपत्ति भेजी। इसके बाद महोदय का मेल आया कि हम पहली बार नहीं मना रहे हैं। इसमें एम.जे.अकबर आ चुके हैं। इसमें पापा के बड़े भाई नरेंद्र प्रताप भी आ चुके हैं। इसमें सीपीएम के दिग्गज मोहम्मद सलीम और न जाने कितने तरह के बुद्धिजीवी आ चुके हैं। महोदय ने ये भी दावा किया कि एसपी तो उनके असली हीरो हैं। वो उनके जीवन के नायक हैं। मैंने उन्हे कुछ दस्तावेज़ भेजे। वो महोदय सक्रिय पत्रकार नहीं हैं। शायद साहित्य से उनका कोई नाता है। अचरज है कि जो पत्रकार दिन रात पापा के साथ रहे । उन्हे अपना आदर्श मानते रहे। उन्होने तो कभी पापा के अपनों की ख़बर नहीं ली। लेकिन इस पेशे से इतर कोई पापा के अपनों की ख़बर रखता है। मैंने उन महोदय से ये पूछा कि आप जन्मदिन मनाएं। मुझे एतराज़ नहीं क्योंकि उन्होने मीडिया में सार्वजनिक संपत्ति तो पहले ही बनाया जा चुका है। लेकिन आप ये बताएं कि आप एस पी को अपना रियल लाइफ हीरो मानते हैं तो कुछ किलमीटर चल कर आपने अपने हीरो के अपनों की ख़बर ली ? आपके हीरो की मां कैसी हैं? किस हाल में हैं ? पापा की जो सबसे क़रीबी जीवन की रहीं हैं वो हैं मेरी मम्मी यानी उनकी भाभी। आपने क्या उनकी कभी सुध ली। महोदय का जवाब इस पर नहीं आया।
ख़ैर , कई मौक़ों पर पापा बेसाख्ता याद आए। जब मेरी शादी हो रही थी तो ठीक उससे पहले मैं, मेरी मम्मी, मुझे जन्म देने वाले पिता और छोटा भाई ख़ूब रोए। शादियों के मौक़ों पर नाच-गाना होता है। मेरे घर में मातम मन रहा था। सबको पापा की याद आ रही थी। हम इसलिए नहीं रो रहे थे कि पापा होते तो नौकरी देते। तरक्की देते। ग्लैमर का रास्ता खोलते। या आगे बढ़ने का मौक़ा देते। हम इसलिए रो रहे थे कि अगर मेरी शादी से सबसे ज़्यादा ख़ुशी किसी को होती तो वो पापा ही होते। मम्मी ये कह कर रो रही थीं कि कितना अच्छा होता कि सुरेंदर बहू को मुंह दिखाई देता। ससुर बनता। देखती कि साहेब बना सुरेंदर बहू से घूंघट करवाता है कि नहीं? जब मेरा बेटा हुआ तो एक बार फिर सब रोए । फिर वहीं ग़म । पापा होते तो अपने पोते को देख फूले नहीं समाते। इस बार अस्पताल में ही मम्मी ने पूछा कि बेटे का कुछ नाम सोचे हो? मैंने कहा कि मम्मी , अभी नहीं। इस बारे में घर में जाकर बात करेंगे। मैं अपनी मां से कैसे कहता कि मेरे बेटे की जान ख़तरे में है। पैदा होते ही उस पर मौत मंडराने लगा है। अस्पताल में इस दौरान मैं अकेले में बार –बार यही सोचता था कि क्या यहीं मेरी नियती है कि पापा भी नहीं और बेटा भी नहीं ? बच्चे की मां बार बार कहती कि बेटे का कहां रखा हैं। मैं उस बार दिलासा दिलाता- अभी तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है। तुम्हारी तबीयत ठीक होते ही उसे तुम्हारे पास ले आऊंगा। मम्मी पूछती थीं कि इतने दिनों तक डॉक्टर बच्चे को जच्चे से अलग नहीं रखते । ये कैसा अस्पताल और डॉक्टर है, जो बच्चे को जच्चे से दूर रख रहे हैं ? मैं दिल्ली के उन तमाम मंदिरों, मस्जिदों, गिरजघरों और मज़ारों पर गया। ये सब वहीं जगहें हैं, जहां मैं पापा की ज़िंदगी की दुआओं के लिए कई बार गया था। इस बार मेरे साथ नंदलाल थे। नंदलाल को बहुत कम लोग जानते होंगे। नंदलाल पापा की गाड़ी चलाया करते थे। बहुत लंबे समय तक। ख़ैर , डॉक्टरों ने बच्चे को सुरक्षित घोषित कर दिया। इसके बाद बारी आई – बच्चे की नाम की। पारिवारिक परंपराओं से उलट मैंने बेटे का नाम तय करने का फैसला किया। घरवालों ने नाम सुना तो बेहद ख़ुश हुए। सबका बस एक ही सुझाव था- इसके नाम में जात-पात न हो। इसका सरनेम सुरेंद्र हों। आख़िरकार मेरे बेटे का नाम रखा गया अंश सुरेंद्र ।
अस्पताल में सबने लाख जतन किए कि किसी तरह पापा बच जाएं। ख़ून के रिश्तों से भी बढ़कर दिबांग ने दिन रात एक कर दिया था। क़मर वहीद नक़वी जी दिलासा देते थे कि नक्षत्र बताते हैं कि वो जल्द ही अस्पताल से ठीक होकर लौंटेंगे। संजय पुगलिया का अस्पताल आकर कोने में कुछ देर तक ख़ामोश खड़े रहना। अमित जज, नंदिता जैन, रामकृपाल जी और कमेलश दीक्षित का लगातार आना-जाना। राम बहादुर राय जी की कोशिश - पूजा पाठ और हवन के ज़रिए अनहोनी को टाला जाए। सबसे मिलकर लगता था कि नहीं , पापा लौटेंगे। मुझे विवेक बख़्शी दिलासा दिलाता था कि सब ठीक हो जाएगा। रात को कई बार मैं दीपक चौरसिया, आशुतोष, अंशुमान त्रिपाठी, राकेश त्रिपाठी और धर्मवीर सिन्हा रूकते थे। इस विश्वास के साथ कि पापा लौंटेंगे। लेकिन सब बेकार।
जब उनके पार्थिव शरीर को लेकर हम घर आने लगे तो मैं थरथरा रहा था। मैंने रामकृपाल चाचा से आग्रह किया कि वो मेरे साथ बैठें। मेरे अंदर हिम्मत नहीं है। सहीं में, पापा के बग़ैर ये सोचकर ही हिम्मत जवाब दे गई थी। मैं फूट फूटकर रो नहीं पा रहा था। जिसका मैं अंश था , उसे ही मैं जलाने जा रहा था। श्मशान में पापा के बगल में बैठकर ख़ूब रोया। ख़ैर, मैं तो उनका अंश था। मैंने एम जे अकबर और सीतराम केसरी को भी फूट- फूटकर रोते देखा। मेरे साथ दिबांग ने भी एक तरह से पुत्र धर्म का निर्वाह किया। पापा को धू- धू जलते देख मैं बौखला उठा। मेरे पिता मेरे पास आए और कहा- ये सच है। तुम्हारा बाप मर गया। बाप वो नहीं होता, जो जन्म देता। बाप वो होता , जो उसे लायक बनाता है। बस इतना याद रखना – भले ही अपने बाप की इज्ज़त न बढ़ा सको लेकिन बट्टा मन लगाना।
कोशिश कर रहा हूं कि अपने वादे पर खरा उतरूं। दुनिया को ख़ामोशी के साथ बदलते देख रहा हूं। ऐसे में पापा और ज़्यादा याद आते है। वो अक्सर अकेले में समझाया करते थे कि अगर झूठ नहीं बोल सकते तो दिल्ली में बोलना बंद कर दो। सफल रहोगे। ये दिल्ली है। लेकिन क्या करूं। हिम्मत से सच कहो तो बुरा मानते हैं लोग, रो-रो के अपनी बात कहने की आदत नहीं रही।

4 comments:

Unknown said...

hum bhi kahan bhool paaye hain
yaad hain
yaad hain
S P AAJ BHI YAAD HAIN
______________AUR RAHENGE.........

सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’ said...

एस०पी० थे ही ऎसे। जिसका कभी उनसे साथ हुआ वह उन्हीं का हो गया।

Rakesh Singh - राकेश सिंह said...

अब देखिये सुरेब्द्र प्रताप जी से मेरा क्या रिश्ता था? उनसे कभी नहीं मिला, ना कभी पत्र लिखा पर उनके बारे मैं ये सब पढ़ कर आँखें नाम हो गई| इसी को सख्सियत कहते हैं |

आज के समय मैं सच बोलने के लिए थोडी मिहनत करनी पड़ेगी, सच बोलो किन्तु थोडी सहद मिला कर|

सुशील छौक्कर said...

आँखे नम हो गई। मार्मिक यादें लिख दी आपने। पेपर में पढे हुए किस्से याद आने लगे है।