सुशील और गोपाल अंसल को मैं जान बूझकर मुजरिम कह रहा हूं। ये बात मैं पूरे होशो-हवाश में कह रहा हूं। मुझे क़ानून की इतनी समझ है कि जब तक सबूतों और गवाहों की रौशनी में कोई आरोपी दोषी साबित नहीं हो जाता तब तक उसे मुजरिम नहीं, मुलज़िम ही कहा जाए। लेकिन मुझे सुशील और गोपाल को हत्यारा कहने में कोई गुरेज और हिचक नहीं है। क्योंकि मेरी नज़र में ये दोनों सबसे बड़े गुनाहगार हैं। मैंने पीड़ितों को इकट्ठा कर कोई संस्था नहीं खोली है। लेकिन मैं भी चाहता हूं कि इन हत्यारों को कड़ी से कड़ा सज़ा मिले। हो सके तो इनेहे सरेआम सूली पर लटकाने से पहले चाबुक से पिटाई की जाए। ताकि देश के दूसरे मुनाफाखोरों को सबक मिले। क्योंकि मैं भी उपहार कांड का पीड़ित हूं। इस अग्निकांड में मैंने अपना सबसे क़रीबी खोया है।
शर्म आती है जब 59 लोगों की हत्या के आरोपियों को अदालत में सम्मान मिले। हमारे देश के क़ानून ने हमे ये अधिकार नहीं दिया है कि हम अदालत के बारे में कुछ लिख सकें। कुछ बोल सकें। इससे अदालत की अवमानना होती है। मैं इसका ख़्याल रखते हुए ये बात पूरे दम के साथ कहना चाहता हूं कि इसका भी ख़्याल रखना चाहिए कि दूसरों की भावनाएं आहत न हों।
1997 से क़ानून से आंख मिचौली कर रहे अंसल बंधुओं को देश की सबसे बड़ी अदलात ने कहा कि अब साम चार बजे तक सरेंडर करना ही होगा। असंल बंधुओं के पास कोई चारा भी नहीं बचा था। पैसे और वकीलों के दम पर अब तक क़ानून की आंखों में धूल झोंकनेवाले सुशील और गोपाल को अदालत में सरेंडर करना ही पड़ा। लेकिन अफसोस इन भगोड़े अपराधियों के साथ सम्मानभरा सलूक मैं हज़म नहीं कर सकता। जिनकी वजह से 60 लोग मरे। उनको इतना सम्मान ? 59 नहीं 60 इसलिए कह रहा हूं क्योंकि इस हादसे की सदमे की वजह से मेरे पिता को ब्रेन हमैरेज हुआ था। इसी घटना ने उनकी जान ले ली थी। हमेशा फौलाद की तरह खड़े रहनेवाले मेरे पिता हादसे के बाद फूट-फूटकर रोए थे। और इसकी ज़िम्मेदारी सुशील और गोपाल अंसल के अलावा उन सरकारी बाबुओं की भी है, जो घूस खाकर इन्हे ग़ैरक़ानूनी काम करने की इजाज़त दी। 1997 में बार्डर देखने गए लोग आग लगने के बाद सिनेमा हाल से बाग नहीं पाए। क्योंकि भागने का रास्ता नहीं मिला। क्योंकि मुनाफाखोर अंसल बंधुओं ने इमरजेंसी रास्ते को बंद कर रखा था। बचने का कोई रास्ता न देख अंसल बंधु अदालत में सरेंडर करने गए। अपराध करने में शर्म न करनेवाले इन भाइयों को मीडिया से नज़र मिलाने में शर्म आने लगी। उन्हे उस रास्ते से अदालत में लाया गया, जिस गेट से परम आदरणीय जज आते हैं। इन अपराधियों के साथ उनके नाते-रिश्तेदार और सत्तर –अस्सी कर्मचारी भी उसी रास्ते अंदर गए। इनके कहने पर सुनवाई के दौरान मीडिया को अदालत से बाहर कर दिया गया । लेकिन इनके नाते-रिश्तेदार और कर्मचारियों को बाहर नहीं किया गया। क्या क़ानून है? अदालत अपराधी की शर्ते मानती है। अपराधियों के साथ आनेवाले लोग अदालत में बैठे होते हैं। अपराधियों को उस रास्ते अंदर आने दिया जाता है, जिस रास्ते से जज साहिबान आते हैं। आख़िकर इन अपराधियों को वीआईपी रास्ते से क्यों अंदर जाने दिया गया ? लेकिन ये सवाल पूछने का हक़ किसी को नहीं है। ये हमारे मौलिक अधिकार में नहीं है। क्योंकि इससे अदालत की अवमानना होगी। भले ही अपराधी को वीआईपी सम्मान देने से पीड़ित परिवार ख़ून के आंसू रोए।
शर्म आती है जब 59 लोगों की हत्या के आरोपियों को अदालत में सम्मान मिले। हमारे देश के क़ानून ने हमे ये अधिकार नहीं दिया है कि हम अदालत के बारे में कुछ लिख सकें। कुछ बोल सकें। इससे अदालत की अवमानना होती है। मैं इसका ख़्याल रखते हुए ये बात पूरे दम के साथ कहना चाहता हूं कि इसका भी ख़्याल रखना चाहिए कि दूसरों की भावनाएं आहत न हों।
1997 से क़ानून से आंख मिचौली कर रहे अंसल बंधुओं को देश की सबसे बड़ी अदलात ने कहा कि अब साम चार बजे तक सरेंडर करना ही होगा। असंल बंधुओं के पास कोई चारा भी नहीं बचा था। पैसे और वकीलों के दम पर अब तक क़ानून की आंखों में धूल झोंकनेवाले सुशील और गोपाल को अदालत में सरेंडर करना ही पड़ा। लेकिन अफसोस इन भगोड़े अपराधियों के साथ सम्मानभरा सलूक मैं हज़म नहीं कर सकता। जिनकी वजह से 60 लोग मरे। उनको इतना सम्मान ? 59 नहीं 60 इसलिए कह रहा हूं क्योंकि इस हादसे की सदमे की वजह से मेरे पिता को ब्रेन हमैरेज हुआ था। इसी घटना ने उनकी जान ले ली थी। हमेशा फौलाद की तरह खड़े रहनेवाले मेरे पिता हादसे के बाद फूट-फूटकर रोए थे। और इसकी ज़िम्मेदारी सुशील और गोपाल अंसल के अलावा उन सरकारी बाबुओं की भी है, जो घूस खाकर इन्हे ग़ैरक़ानूनी काम करने की इजाज़त दी। 1997 में बार्डर देखने गए लोग आग लगने के बाद सिनेमा हाल से बाग नहीं पाए। क्योंकि भागने का रास्ता नहीं मिला। क्योंकि मुनाफाखोर अंसल बंधुओं ने इमरजेंसी रास्ते को बंद कर रखा था। बचने का कोई रास्ता न देख अंसल बंधु अदालत में सरेंडर करने गए। अपराध करने में शर्म न करनेवाले इन भाइयों को मीडिया से नज़र मिलाने में शर्म आने लगी। उन्हे उस रास्ते से अदालत में लाया गया, जिस गेट से परम आदरणीय जज आते हैं। इन अपराधियों के साथ उनके नाते-रिश्तेदार और सत्तर –अस्सी कर्मचारी भी उसी रास्ते अंदर गए। इनके कहने पर सुनवाई के दौरान मीडिया को अदालत से बाहर कर दिया गया । लेकिन इनके नाते-रिश्तेदार और कर्मचारियों को बाहर नहीं किया गया। क्या क़ानून है? अदालत अपराधी की शर्ते मानती है। अपराधियों के साथ आनेवाले लोग अदालत में बैठे होते हैं। अपराधियों को उस रास्ते अंदर आने दिया जाता है, जिस रास्ते से जज साहिबान आते हैं। आख़िकर इन अपराधियों को वीआईपी रास्ते से क्यों अंदर जाने दिया गया ? लेकिन ये सवाल पूछने का हक़ किसी को नहीं है। ये हमारे मौलिक अधिकार में नहीं है। क्योंकि इससे अदालत की अवमानना होगी। भले ही अपराधी को वीआईपी सम्मान देने से पीड़ित परिवार ख़ून के आंसू रोए।
1 comment:
sahi keh rahe hain aap.isi vajah se to hausale badh jate hain in logon ke,saza bhi hoti hai to bimari ka bahana bana kar aspatal numa guest house me.sach me sharmanak hai
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