Tuesday, June 24, 2008

मैं इस विलाप में शामिल नहीं हूं- एस.पी.सिंह


सवाल- आप प्रिंट मीडिया से एलेक्ट्रानिक मीडिया में आ गए हैं। अपनी उपस्थिति में कैसा अंतर पाते हैं?जवाब- किसी माध्यम या संस्थान में निजी उपस्थिति का क़ायल मैं कभी नहीं रहा। मैंने जहां भी काम किया, टीम वर्क की तरह काम किया। अख़बार में भी जब मैं था तो पहले पन्ने पर दस्तख़त करके कुछ भी लिखकर छपने की वासना मुझमें नहीं रही। हिंदी में तो इसकी परंपरा ही रही है। मैं भी चाहता तो ऐसा अक्सर कर सकती था। अब टेलीविज़न के लिए काम करना मुझे रास आ रहा है। बतैर प्रोफेशन मैं यहां पहले से ज़्यादा संतुष्ट हूं। क्योंकि यहां लफ़्फ़ाज़ी और छल की गुंजाइश नहीं है। आलस्य और मिथ्या पत्रकारिता यहां नही चल सकती। जैसा कि कुछ लोग अनजान सूत्रों के हवाले से कुछ भी लिखते रहे हैं। यहां तो आप जो कुछ भी आप टिप्पणी करते हैं, उसे दिखाना पड़ता है। ये बात अलग है कि यहां ग्लैमर ज़्यादा है।

सवाल- आजकल हिंदी अख़बारों पर संकट की हर जगह चर्चा हो रही है। आपको क्या लगता है ? जवाब- ये उनके गोर अज्ञान की अभिव्यक्ति है। हिंदी पत्रकारिता का स्वर्ण युग चल रहा है। हिंदी और भाषाई अख़बारों की पाठक संख्या, पूंजी, विज्ञापन और मुनाफा लगातार बढ़ रहा है। हां, इस वृद्धि के बरबस उनके समाचार विचार स्तर को लेकर आप चिंतित हो सकते हैं। पर ये सब समय के साथ सब ठीक हो जाएगा। दूसरी ओर आज, दैनिक जागरण, अमर उजाला, राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर सहित अनेक क्षेत्रिय अख़बार अपना विकास कर रहे हैं। जयपुर में भास्कर और पत्रिका की प्रतियोगिता से क़ीमतें नियंत्रित हुई हैं। गुणवत्ता भी सुधर जाएगी। सच तो ये है कि हिंदी पत्रकारिता अपने पैरों पर खड़ी हो रही है। हालांकि पेशे के रूप में अभूतपूर्व वृद्धि के कारण हिंदी पत्रकारिता में बड़ी मात्रा में कर पतवार आ रहे हैं। लेकिन ये स्थिति स्थाई नहीं होगी।

सवाल- इसी संदर्भ में कहा जा रहा है कि हिंदी अख़बारों की विश्वसनीयता घट रही है। जवाब- भारतीय समाज में तुलसीदास के समय से ही त्राहि-त्राहि का भाव व्याप्त रहा है। पिछले 150 सालों से तो ये रोना और तेज़ हुआ है। हर आदमी बताता फिर रहा है कि संकट काल है। कम से कम मैं इस सामूहिक विलाप में शामिल नहीं हूं। भारतीय संस्कृति मूलत विलाप की संस्कृति रही है। नरेंद्र मोहन अख़बार की बदौलत राज्यसभा पहुंच गए तो बड़ा शोर हो रहा है। 1952 से ही ये सब हो रहा है।

सवाल- पत्रकारिता के मिशन बनाम प्रोफेशन होने पर भी बहस हो रही है। आप क्या सोचते हैं ?जवाबः सरकारी सुविधाएं और पैसे लेकर निकलनेवाले अख़बारों की सामाजिक प्रतिबद्धता क्या है? ये एक फरेब है, जो हिंदी में ज़्यादा चल रहा है। पत्रकारिता क़स्बे से लेकर राजधानी तक दलाली और ठेकेदारी का लाइसेंस देती है। मैंने किसी मिशन के तहत पत्रकारिता नहीं की। मेरी प्रतिबद्धिता अपने पेशे यानी पत्रकारिता के प्रति है। आज़ादी की लड़ाई के दौरान पत्रकारिता मिशन थी। इसलिए वस्तुपरक भी नहीं थी। मिशन की पत्रकारिता हमेशा सब्ज़ेक्टिव होती है। यदि कोई पार्टी, संस्थान, आंदोलन मिशन की पत्रकारिता करे तो समझ में आती है। लेकिन नवभारत टाइम्स, जनसत्ता या हिंदुस्तान क्यों मिशन की पत्रकारिता करे ?

सवाल- मीडिया में वर्चस्व की संस्कृति को लेकर कुछ राजनेताओं ने अच्छा ख़ासा विवाद खड़ा कर दिया है। कांशीराम द्वारा पत्रकारों की पिटाई का मामला ताज़ा उदाहरण है। आपने इससे अपने आपको अलग क्यों कर लिया ?

जवाब- उसमें जातिवादी ओवरटोन ज़्यादा ता। इसलिए मैं अलग हो गया। यदि आप इस पेशे में आए हैं, तो इसकी पेशागत परेशानियों का सामना करें। वरना कोई अतिसुरक्षित पेशा चुन लें। कल्पना कीजिए यही काम किसी सवर्ण मे किया होता तो क्या ऐसा ही विरोध होता ? सवर्ण पत्रकारों ने इस घटना को दलित नेता को ज़लील करने के एक अवसर के के रूप में इस्तेमाल किया। मीडिया में प्रच्छन्न सवर्ण जातिवादी वर्चस्व है। उत्तर भारत में तो अधिकतर अख़बारों में सांप्रदायिक शक्तियां ही हावी हैं। पिछड़ों को सबक सिखाने का बाव आज भी ज़्यादातर महान क़िस्म के पत्रकारों की प्रेरणा बना हुआ है। ये वर्चस्व चूंकि समस्त भारतीय सामज में है, इसलिए मीडिया में भी है।

सवाल- साहित्य और पत्रकारिता के रिश्तों पर आपकी टिप्पणियां ख़ासा विवाद पैदा करती रही हैं। क्या आप अब भी ऐसा मानते हैं कि साहित्यकारों ने पत्रकारिता में गालमेल कर रखा है ?जवाब-भाषा की बात छोड़ दें तो विषयवस्तु या विचार के स्तर पर िकसी भी साहित्यकार संपादक ने हिंदी पत्रकारिता को कोई ज़्यादा मज़बूत किया , ऐसा मैं नहीं मानता। लेकिन ये भी सच है कि आज हिंदी पत्रकारिता की अपनी भाषा बन रही है। सारी दुनिया में पत्रकारिता की भाषा को साहित्य ने अपनाया है। हमारे यहां उलटी गंगा बहाने की कोशिश होती रही। इसे दुराग्रह नहीं तो क्या कहेंगे कि पत्रकारिता की भाषा को साहित्यिक बना दिया जाए।

मैं अक़्सर ऐसी चर्चाएं सुनता हूं कि और मेरी समझ में नहीं आता कि साहित्यकार पत्रकारिता से क्या और क्यों उपेक्षा करते हैं ? आप बेशक़ जैसी मर्ज़ी वैसी साहित्यिक पत्रकारिता करें। लेकिन बजट और विदेश नीति पर पत्रकारिय लेखन आपकी दख़लअंदाज़ी क्यों ? प्रिंट मीडिया के लिए भाषा और शाली की ज़रूरत है। लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि किसी बड़े विद्वान पंडित या साहित्यकार को संपादक बना दें। हिंदी में अक़्सर लोग शिकायत करते हैं कि पत्रकारिता में साहित्य को तरज़ीह नहीं दी जाती। आप बताइए कि संसार किस भाषा की पत्रकारिता में साहित्यिक ख़बरें प्रमुख रहती हैं। ख़बरों में बने रहने की ईच्छा वैसी ही वासना है , जैसा कि राजनेता पाले रखते हैं। मैंने देरिदा को नहीं दिखाया। आप ये न समझें कि ऐसा मैंने बाज़ार के दबाव में आकर किया। जी नहीं, मैंने यानी को भी नहीं दिखाया। ऐसा इसलिए कि आज तक के दर्शक समुदाय के लिए इन घटनाओं का कोई ख़ास महत्व नहीं है।

सवाल- ऐसा कह कर आप पत्रकारिता के लिए साहित्य के महत्व को रद्द तो नहीं कर रहे हैं? क्या आप रघुवीर सहाय, अज्ञेय, धर्मवीर भारती, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, श्रीकांत वर्मा और अन्य अनेक साहित्यकारों के पत्रकारीय योगदानों को स्वीकार नहीं करते ?जवाबः देखिए, एक बात साफ कर दूं कि मैं इन लोगों के प्रति बहुत श्रद्धा रखता हूं। साहित्य पढ़ना मेरी आदत है। जो लोग कविता लिखते हैं, वो बहुत कठिन और बड़ा काम करते हैं। मुझे ख़ुद इस बात का अफ़सोस रहता है कि मैं कविताएं नहीं लिख पाता। ये मेरी असमर्थता है। लेकिन ये लोग सिर्फ अच्छे साहित्यकार होने की वजह से संपादक नहीं बने। ये लोग अपने समय के श्रेष्ठ पत्रकार थे। ये उस दौर में सामने आए, जब जब हिंदी पत्रकारिता दोयम दर्ज़े के हाथों में था। इन लोगों ने इसे नया चमकदार चेहरा दिया।

साहित्य सृजन की एक श्रेष्ठ विद्या है। जैसे चित्रकला, अभिनय, गायन, नृत्य़ आदि। फिर आप बहुच बड़े डॉक्टर , इंजीनियर, नेता, वकील या कुछ भी हों पर इसका मतलब ये नहीं कि आपको संपादक बना दिया जाए। महज़ इसलिए कि आप उस भाषा में लिखते हैं, जिसमें अख़बार निकलता है।

एस.पी, सिंह का ये आख़िरी इंटरव्यू है। 16 जून 1996 को उन्हे ब्रेन हेमरेज हुआ था। जनसत्ता का ये अंक रविवार 15 जून 1996 को आया था। उस दिन मेरे छोटे बाई का जन्मदिन था। उस दिन मैंने अपने पापा से इस ख़बर को लेकर शैलेश जी के सामने मज़ाक भी किया था। लेकिन मुझे अहसास नहीं था कि क़ुदरत मेरे साथ ऐसा मज़ाक करेगी। मैं बग़ैर बरगद की छांव में बारिश में भीग रहा होऊंगा।

3 comments:

दिलीप मंडल said...

ये 1996 का इंटरव्यू है या 2008 का सच।

Rakesh Singh - राकेश सिंह said...

SP Singh jaise bebak aur santulit patrakar aaj ke samay main nahin ke barabar hai.

dhanyawad

naath baba kahinnnn said...

I am very glad to know that someone is there who still speakabout SP singh. Well you can find a lot about SP singh on net or else but still am waiting for a good biography based on him. IF you know any of them please let me know.