Monday, June 23, 2008

हिंदी चैनलों का कोई चरित्र नहीं बन पाया है- एस.पी.सिंह


निजी चैनलों का भारत में भविष्य कैसा है ? पत्रकारिता की शैली में यदि आप मुझसे पूछें तो मैं कहूंगा कि भविष्य बहुत अच्छा है। लेकिन इससे काम चलेगा नहीं। दूरदर्शन को एक तरह से चुनौती मिलनी शुरू हो गई है। कई तरह के चैनल हमारे सामने आ रहे हैं। इन नए चैनलों में भारतीय, विदेशी, निजी और सरकारी चैनल शामिल हैं। चैनल आते है, थोड़े दिनों तक दिखाई देते हैं और फिर ग़ायब हो जाते हैं। निजी चैनल जितने आए हैं, उनमें सफलता का प्रतिशत ज़्यादा नहीं है। व्यावसायिक कोण के बग़ैर किसी चैनल की सफलता या असफलता को आंकना आज के ज़माने में नामुमक़िन है। ये एक ऐसा माध्यम है, जिसमें करोड़ों की पूंजी लगती है। सिर्फ अच्छे कार्यक्रमों के आधार पर किसी चैनल की सफलता को नहीं आंका जा सकता। क्योंकि अगर ऐसा होता, तो डिस्कवरी चैनल एक बहुत सफल चैनल हो गया होता। फिर भी मैं कह रहा हूं कि निजी चैनल का भविष्य बेहद उज्जवल दिखाई देता है। ये कहने के लिए मेरे पास दो आंकड़े हैं। साल 1985 में विज्ञापनों पर 1.5 अरब रुपए ख़र्च किए गए। इसमें 75 प्रतिशत प्रिंट मीडिया पर ख़र्च होता था। 12 प्रतिशत रेडियो पर, 3 प्रतिशत सिनेमा पर और बाक़ी 6 फीसदी आउटडोर यानी होर्डिंग पर ख़र्च होता था। लेकिन साल 1994 में ये रक़म 35 अरब हो गई। यानी 10 साल में लगभग 400 फीसदी का इजा़फा। प्रिंट मीडिया की हिस्सेदारी 75 से घटकर 62 फीसदी हो गई। दूरदर्शन तब भी 12 वें नंबर पर था। अब भी वहीं डटा हुआ है। विज्ञापन राशि का 6 फीसदी हिस्सा सैटेलाइट टेलीविज़न के पास आ गया। इन आंकड़ों से लगता है कि निजी चैनलों का भविष्य बेहद उज्जवल है।

हम अगर हिंदी मीडिया से बार निकलकर उत्तर से दक्षिण बारत पर नज़र डालें तो हमारा दिमाग़ साफ हो जाएगा कि किस पैमाने पर वहां निजी चैनल सफलतापूर्वक चल रहे हैं। वहां पर चार चैनल तो बड़े सफल साबित हो रहे हैं, इनमें सन, जेमिनी, राज और जेजे शामिल हैं। ज़ी हिंदी का सबसे सफल चैनल है। लेकिन उस पर भी लोकप्रियता की दृष्टि से सबसे ज़्यादा देखे जानेवाले कार्यक्रम क्लोज़अप अंताक्षरी, फिलिप्स टॉप टेन औऱ कैंपस ही हैं। इनकी टीआरपी रेटिंग 10 के आस पास रहती है। दूरदर्शन की रेटिंग बहुत ऊंची है। जब महाभारत उफान पर होता है, तो टीआरपी 60-62 के आस-पास रहता है। अगर कृष्णा है तो भी 50-52 से नीचे नहीं जाता। आपकी अदालत जो एक तरह से टीवी पत्रकारिता में एक प्रतिमान क़ायम कर रहा है , वो भी लोकप्रियता में दो फीसदी से ज़्यादा नहीं है। दूसरी तरफ, तमिल के जो चैनल है और वहां पर जो उनके समाचार आते हैं, उन्हे देखने वालों का प्रतिशत 40 से 70 फीसद के बीच रहता है। ये सिर्फ तमिल ही नहीं होता, तेलगू में भी होता है और मलयालम में भी। इस बार जयललिता की हार में सन टीवी की बड़ी भूमिका रही। अंतिम दिनों में रजनीकांत ने जो बयान दिया, उसका असर ये बताता है कि जयललिता की पार्टी तमिलनाडु में पूरी तरह से साफ हो गई। आर्थिक तौर पर भी वो इतने सक्षम हैं कि वो दावे के साथ सरकार से कह रहे हैं कि आप हमें अपलिंकिग की सुविधा दीजिए, बाक़ी सारा इंतज़ाम हम ख़ुद कर लेंगे।

दक्षिण के चैनलों की तरह स्थिति हिंदी के चैनलों में नहीं बन पा रही। क्यों नहीं बन पा रही क्योंकि हिंदी के चैनलों का कोई चरित्र नहीं बन पाया है। सिर्फ सिनेमा का क्लिप लेकर आप एक लड़का और एक लड़की को ले लें और वो तरह-तरह से उछलता रहे। कभी सड़क पर, कभी चिड़ियाघर में- इस तरह के बीस प्रोग्राम आप आप हम झोंक दें और उम्मीद करें कि वो सफल हो जाएंगे। नहीं होंगे। हर तरह के प्रोग्रामों की एक सीमा होती है। अभी स्थिति ये है कि हम परीक्षण के दौर से गुज़र रहे हैं। यानी एक अंताक्षरी सफल है तो आप सौ अंताक्षरी के लिए तैयर हो जाइए। हामार बौद्धिक दिवालियापन इस हद तक है कि अगर एक हनुमान चल रहा है तो दूसरे भी आ गए हैं। मैं ये बात दावे के साथ कह रहा हूं कि तीसरे हनुमान भी आ जाएंगे। ये सिर्फ निजी चैनलों की बात नहीं है। हमारा जो दूरदर्शन है, वहां भी कल्पनाशीलता की कमी है। आज उनकी सबसे बड़ी चिंता है कि उनकी टीआरपी रेटिंग कैसी है।

हमारे देश में अशिक्षितों की संख्या सबसे ज़्यादा है। टीवी 44 फीसदी निरक्षर लोगों के घर तक पहुंचता है। पश्चिम में सैटेलाइट या इलेक्ट्रानिक मीडिया का जब हमला हुआ तब कमोबेश उस समाज में शिक्षा का एक स्तर पहुंच चुका था। जहां पर लोग कम से कम 90 प्रतिशत और कुछ जगहों पर 100 प्रतिशत साक्षर थे। वहां पर जब इसका हमला हुआ तो इसकी जो बुराइयां है, वो लोग झेल गए। हमारा देश तो वैसे भी वाचक परंपरा का देश रहा है। हम लिखने पर विश्वास कम करते हैं और बोलने में ज़्य़ादा। हमारे ज़्यादातर काव्य बोलकर लिखे गए हैं। ऐसे देश में जो बीच का स्थान था, उसे हम फलांग कर आगे निकल गए हैं। अशिक्षित लोगों के पास अब हम इतने सशक्त माध्यम लेकर जा रहे हैं , जो दृश्य भी है और श्रव्य भी । किस हद तक ये माध्यम उनको प्रभावित कर सकता है, ज़रा इसके बारे में सोचें और इसके बारे में विचार करें। इस माध्यम का अच्छा उपयोग करें तो अच्छी बात होगी। लेकिन उपयोग बुरा हुआ तो स्थिति बहुत गंभीर हो जाएगी।

क्रमश:

सुरेंद्र प्रताप सिंह यानी एस.पी. सिंह ने सितंबर 1996 में दिल्ली में ब्रिटिश उच्चायोग के हिंदी अनुभाग के एक सेमिनार में भाषण दिए थे। भाषण का बाक़ी का अंश जारी है।

1 comment:

PD said...

हम इंतजार में हैं..