Sunday, June 22, 2008

27 जून को एस.पी. की ग्यारहवीं पुण्यितिथि


इस सत्ताइस जून को सुरेंद्र प्रताप सिंह के देहांत के ग्यारह बरस पूरे हो रहे हैं। उपहार अग्निकांड के बाद 16 जून को उनके दिमाग़ की नसें फट गई थी। सबसे पहले उन्हे विमहेंस में एडमिट कराया गया। हालत बिगड़ने पर दोपहर में उन्हे अपोलो हॉस्पिटल में एडिमट कराया गया। ये बहुत कम लोगों को ही पता होगा कि 26 जून की देर रात को उनके दिमाग़ ने काम करना बंद कर दिया। वो इंसान, जो दिमाग़ की वजह से लोकप्रिय रहा है। 27 जून की सुबह दिल ने भी धड़कने से इनकार कर दिया।

याद है मुझे वो रात, जब डॉक्टरों ने हमें मानिसक तौर पर तैयार रहने को कह दिया था। उनकी पत्नी पर जो बीत रही थी, उसे बता पाना बेहद मुश्किल है। लेकिन जो मेरे साथ गुज़रा , उसे आज तक मैं नहीं भूला पाया हूं। जिस बरगद की छांव में मैं पला था, अचानक उसके गिरने की कल्पनाभर से मैं मटियामेट हो चुका था। मुझे अहसास हो चुका था कि मैं कमज़ोर हो चुका हूं। दिमाग़ी-ज़ेहनी तौर पर।

सेरोगट मदर के बारे में दुनिया जानती है लेकिन सैरोगट फादर का अंदाज़ा शायद न होगा। वो मेरे पिता नहीं थे। फिर भी वो मेरे पिता थे। मेरे पिता तीन भाई। सबसे बड़े मेरे पिता एन.पी., उसके बाद और एक चाचा। एन.पी. और एस.पी में बचपने से बहुत दोस्ती थी। दोनों एक दूसरे पर हमेशा क़ुर्बान होने को तैयार। मेरे पिता जी के दो बेटे हुए। बड़ा मैं और मुझसे छोटा एक भाई। एस.पी. ने बचपन में मुझे अपने बेटे का दर्जा दे दिया। ये दर्जा रागात्मक, भावनात्मक था। इसके लिए किसी क़ानूनी लिखत पढ़त की ज़रूरत हम लोगों ने नहीं समझी। पापा मेरी मां के बेहद दुलारे थे। वो उनके लिए देवर भी थे और बेटे भी। अक्सर लोगों से हंसी - मज़ाक से बचनेवाली मेरी मां उनसे मज़ाक कोई मौक़ा नहीं छोड़ती थी। याद है मुझे वो दिन। तब वो रविवार पत्रिका के संपादक थे। होली के दिन घर पर आए। मां मेरी होली नहीं खेलती थीं। पापा को देखते ही वो स्टील के एक मग में रंग भर कर ले आई औऱ पापा के ऊपर फेंक दिया। हालांकि मैं मां से ज़्यादा क़रीबी तौर पर जुड़ा हुआ था। लेकिन पापा के घर में घुसते ही मां की ये हरकत मुझे पसंद नहीं आई और मैंने उसी मग को मां की पेट पर मार दिया। मां दर्द से छटपटा उठीं और मेरे गाल पर पापा की एक ज़ोरदार चपत लगी। उस समय मैं बहुत छोटा था। लेकिन ये क़िस्सा आज भी मुझे सोचना पर मजबूर करता है कि मैं अपनी सगी मां से ज्यादा प्यार करता था या फिर पापा से।

अस्पताल में पापा के रहने के दौरान हमने लाख जतन किए। ख़ून के रिश्तों से भी बढ़कर दिबांग का रात-दिन एक करना। संजय पुगलिया की मायूस होती आंखें। अपना काम काज छोड़कर अमित जज और नंदिता जैन की मेहनत। राम बहादुर राय जी की कोशिश - पूजा पाठ और हवन के ज़रिए अनहोनी को टाला जाए। सुबह तीन बजे राय साहेब का आदेश देना- भैरव बाबा मंदिर से पुजारी को बुलाकर महामृत्युंजय जाप कराना। लेकिन सब बेकार गया।

ख़ैर पापा की मौत के बाद जब उनके पार्थिव शरीर को लेकर हम घर आने लगे तो मैं आपे में नहीं था। मैंने रामकृपाल चाचा को कहा कि वो मेरे साथ उस गाड़ी में बैठें , जिसमें बग़ैर प्राण के पापा थे। घर से कांधे पर पापा की अर्थी लेकर जब मैं चला तो यक़ीन मानिए मैं सब कुछ लुटाकर चला जा रहा था। जिसका अंश था मैं, उसे मैं जलाने जा रहा था। शम्शान घाट पर बहुत सारे लोग थे। उनमें से एक थे सीताराम केसरी , जो पापा को अपने बेटे की तरह मानते थे। उनका फूट फूटकर रोना याद है मुझे। पापा को आग के हवाले किया। मेरे साथ दिबांग ने भी पुत्र धर्म का निर्वाह किया। पापा को धू- धू जलते देख मैं बौखला उठा। मेरे पिता मेरे पास आए और कहा- सच स्वीकार करो। तेरा बाप मर चुका है। अब तुम इस दुनिया में बगैर बाप के हो। इससे पहले मेरी पंडित जी से भिड़ंत हो चुकी थी। वो मुझे मुखाग्नि पर जो़र दे रहा था। मैं उसे समझाने की कोशिश कर रहा था कि जिस व्यक्ति ने ज़िंदगीभर मेरे मुंह में अन्न देने की कोशिश की है, उसके मुंह में मैं बदले में आग कैसे दे दूं। ये कैसा धर्म है। पंडित को ये बाते समझ में नहीं आ रही थीं। लेकिन मैंने वहीं किया , जो मेरा धर्म कहता था। मैंने कपाल क्रिया से भी मना कर दिया।

रात को पापा के कमरे में अकेले बैठा था। कोलकाता से निर्मल दा आ चुके थे। मना करने पर भी उन्होने आज तक चैनल लगा दिया। दूरदर्शन पर संजय पुगलिया दिखे। आवाज़ भर्राई हुई और आंखों में नमी। इसे मैने पढ़ लिया था। मैं कमरे से बाहर चला गया। लेकिन संजय की नम आंखे और रूधी आवाज आज भी मुझे हौसला देती है। वो चेहरा बताता है- अगर मैं अकेला हूं तो संजय भी तन्हा हैं। इसलिए आज मैं ख़ुद को अकेला नहीं पाता।

5 comments:

सुशील छौक्कर said...

भावनाओ से भरी बातें। भावुक करती बातें। सच एस.पी. बहुत याद आतें हैं।

sanjay patel said...

अत्यंत मार्मिक वृतांत है यह.
सुरेन्द्र प्रताप सिंह जीते जी एक संस्था बन गए थे. आज समाचार चैनलों पर ग्लैमर की भरमार है,काम करने वालों का नाम है,उनके लिये पैसा है ...लेकिन विचार गुम है.
इस दौर के उपजने के पहले ही एस.पी.चले गये...क्या इस बदहाली का पूर्वाभास था उन्हें ?
जब भी पत्रकारिता में रचनात्मकता की बात चलेगी....शिद्दत से याद आएंगे एस.पी.

mamta said...

बहुत ही भावुक विवरण ।
एस .पी . को भला कैसे भूला जा सकता है और उनका ये कहना
ये थी खबरें आजतक इंतजार कीजिये कल तक

संदीप सिंह said...

बड़ी कमी खलती है एस पी जी की . उनकी आदर्श पत्रकारिता भी उनके साथ ही रुक्सत हो गई .ग़ालिब मर गया लेकिन बहुत तू याद आता है ,तेरा हर बात पर कहना यूं होता तो क्या होता .
पर शायद तू होता तो यूं न होता . एस पी जी के लिए मेने भी कुछ लिखने की कोशिश की है .....

Anonymous said...

aadrneey chandan ji sp singh ji ka jana nischit hi bhartiya itihas ki sabse dukhd ghatna hai.apne ap me ek sansthan rahe pujya sp ji kabhi bhi bhulaye nahi ja sakte.jab jab patrakarita me vicharo ki nidarta ki bat chalegee,jab jab glaimer aur gambhirta ki bat aayegi tab tab sri sp yad hi nahi balki siddat se yad kiye jayege.aap ne jis bhavnatmak dhang se us sankat ki ghadi ko rekhankit kiya hai vah vakai bemishal hai.apke jaisee bhavna maine tab mahsoos ki thi jab mai 6 sal ka tha aur mere pita ji ki hatyaro ne hatya kar di thi.us samay mai bahut asahaya ho gaya tha lekin wakt sabse badha marham hota hai vah hr ghav ko sukha deta hai.lekin jakhm ke nishan to hamesha ghavo ko yaad dilate hai.khair sp singh bhale hi aaj hamare beech nahi hai lekin unke bataye hua marg aur sp school ke patrakar unki smritiyo ko chir kal tak banaye rakhege inhi shubhkamnao ke sath aap ka chhota bhai--dhirendra pratap singh durgvanshi