हम भारतीयों की एक आदत है। ये आदत बहुच अच्छी है, कमावल की है। आज मैं आपलोगों को एक बहुत पुरानी बताने जा रहा हूं। भड़ास वेबसाइट से जानकारी मिली कि रामअवतार गुप्ता नहीं रहे। हिंदी पत्रकारिता से जुडे़ लोगों को बताने की ज़रूरत नहीं कि गुप्ता जी कौन थे और हिंदी पत्रकारिता में उनका क्या योगदान रहा है। ये सच है कि पश्चिम बंगाल में हिंदी बेहद कमज़ोर हालत में है। इस हालत के लिए तीन बाते मुख्य तौर पर ज़िम्मेदार हैं। पहली बात- राज्य सरकारों ने कभी भी हिंदी का साथ नहीं दिया। जब से वाम मोर्चा की सरकार आई तो उसने बहुत ही सोची समझी रणनीति के तहत हिंदी को खोखला करने काम किया। लेफ्ट फ्रंट के नेताओं को लगता है कि हिंदी बोलनेवाले लोग लाल झंडे को वोट नहीं देते। इसलिए पश्चिम बंगाल के सरकारी स्कूलों में पढ़ाई तो बेशक़ हिंदी में होती है। लेकिन जब दसवीं का इम्तिहान होता है, वो अंग्रेज़ी में होता है। सरकार का कुतर्क है कि कॉपियां जांचने के लिए इतनी संख्या में हिंदी टीचर नहीं हैं। पिछले तीस सालों में सरकार को हिंदी टीचर क्यों नहीं मिले, ये सोचने की बात है। क्योंकि इस देश में बेरोज़गारी एक बड़ी समस्या है। लेकिन वाम मोर्चा की सरकार को हिंदी के टीचर नहीं मिलते। अंग्रेज़ी, बांग्ला, तेलगू और उर्दू के मिल जाते हैं।
दूसरी बात, सरकारी फंड से हिंदी के विकास के लिए कई दुकानें खुल गईं। इन दुकानों में वहीं बैठते ही , जिनकी दुकानदारी हिंदी के नाम पर होती है। हिंदी के विकास के लिए रत्ती भर भी काम नहीं किया। कभी हिंदी टीचरों की बहाली के लिए कोई आंदोलन नहीं छेड़ा। बस कविता , कहानियां लिखकर धंधा जमाए हुए हैं। प्रभात ख़बर के ओम प्रकाश अश्क जी ने इस बारे में कई लेख भी लिखे हैं।
तीसरी बात- पत्रकार, बुद्धिजीवि और जनता - तीनों ने ही ज़ुबान पर ताला लगाए रखा। और बहुसंख्यक लोग हिंदी बोलनेवालों को मेड़ो बोलकर अपमानित करने का सिलसिला चलाते रहे। वैसे तो मेड़ो शब्द बहुसंख्यक लोगों ने मारवाड़ियों को ध्यान में रख कर बनाया था, जिसका इस्तेमाल गाली के तौर पर होता है। लेकिन बाद में ये शब्द हर हिंदी बोलनेवालों के लिए इस्तेमाल होने लगा। पश्चिम बंगाल के किसी भी रेलवे स्टेशन पर चले जाइए। किसी भी स्टेशन पर नाम की जो पीली पट्टी होती है, उस पर बांग्ला और अंग्रेज़ी में तो स्टेशन का नाम है, लेकिन हिंदी पर कालिख पोत दी गई है। ऐसे स्टेशनों पर आमारा बांगाली संस्था के पोस्टर मिल जाएंगे।
जिस राज्य में ऐसे हालात हों, वहां हिंदी में अख़बार निकालना और उसे लोकप्रिय बनाना - कोई कम हिम्मत की बात नहीं है। राम अवतार गुप्ता ने ये साहस करके दिखाया। सन्मार्ग अख़बार को कोलकाता और पूरे राज्य का सबसे पढ़ा जानेवाला अख़बार बनाया। पहले तो केवल आठ पन्नों का ये अख़बार आता था लेकिन बाद में समय के थपेड़ों ने इसे भी पन्ने बढ़ाने पर मजबूर किया। अब बात राम अवतार गुप्ता जी और उनके अखबार के गुणवत्ता की।
संपन्न औऱ संभ्रात घरानों में सन्मार्ग को कभी अच्छी नज़रों से नहीं देखा गया। तब अंग्रेज़ी में द टेलीग्राफ भी नहीं आया था। घर के बड़े बुज़ुर्ग द स्टेट्समैन पढ़ने की हिदायत दिया करते थे। क्योंकि उस समय में ये अख़बार चाय की दुकानों , कुलियों और मज़दूरों में बेहद लोकप्रिय था। ख़बरों की गुणवत्ता पर नज़र डालें तो आंनद बाज़ार, आजकाल , वर्तमान, जुगांतर, अमृत बाज़ार,विश्वामित्र, छपते-छपते जैसे अख़बारों से इसकी ख़बरें अलग होती थीं। यूं कह सकते हैं कि दिल्ली में अभी सबसे ज़्यादा बिकने और पढ़नेवाले हिंदी अख़बार की जो छवि अभी है, वही सन्मार्ग की हुआ करती थी। नवभारत टाइम्स और जनसत्ता ने पाठकों की इस भूख को मिटाने की कोशिश की। लेकिन वो सफल नहीं पाए। नवभारत टाइम्स को कोलकाता से बोरिया बिस्तर समेटना पड़ा। जनसत्ता केवल मारवाड़ियों का अख़बार बन कर रह गया। लेकिन सन्मार्ग हर हिंदी भाषी का चहेता अख़बार बना रहा।
ये बात बहुत पुरानी है। एक न्यूज़ एजेंसी से रिटायर होने के बाद सुदामा प्रसाद सिन्हा ने संपादक का काम काज संभाल लिया। हालांकि प्रिंट लाइन में गुप्ता जी का ही नाम संपादक के तौर पर जाता रहा। लेकिन संपादकीय विभाग की जिम्मेदारी सुदामा जी संभाल रहे थे। दिल्ली में ब्यूरो का लालमुनी चौबे जी संभाल रहे थे। उन्ही दिनों नैहाटी के एक सज्जन समाचार संपादक का काम कर रहे थे। संपादक और समाचार संपादक में बनती नहीं थी, इसका अहसास शुरू में ही मुझे हो गया था। बाद में इसका खुलासा कई और कर्मियों ने किया। उन दिनों मैं बेरोज़गार था। सुदामा जी से नौकरी के लिए मिला। दो तीन बार की मुलाक़ात के बाद उन्होने मुझे काम देने का वादा किया। कहा- अभी नौकरी तो नहीं है। लेकिन तुमसे रिपोर्टर की तरह काम कराऊंगा और ठीक -ठाक पैसे का इंतज़ाम करा दूंगा। इस वादे के साथ उन्होने मुझे उत्तर चौबीस परगना ज़िला से रोज़ ख़बरें देने का कहा। मैंने ये काम शुरू कर दिया। ये सिलसिला महीनों चला। मेरी भेजी गईं ख़बरें लगती रहीं। लेकिन मुझे कभी बाइ लाइन नहीं मिला। हमेशा ये छपता था- निज प्रतिनिधि, निज संवाददाता, एक संवाददाता। जब मैंने सुदामा से इस बारे में बात की कि तो उन्होने कहा कि थोड़े दिनों में सब ठीक हो जाएगा। ऐसे ही महीनों बीत गए। ख़बरों के लिए भागा-दौड़ी में जो जेब में पैसे थे, सब ख़त्म हो गए। इस बार में फिर सुदामा जी से मिला और ख़स्ताहाली के बारे में बताया। उन्होने कहा- कोई बात नहीं । तुम अपनी ख़बरों के प्रकाशन तिथि को लिखकर दे दो, पेमेंट मिल जाएगा। लेकिन मुझे फिर भी पैसे नहीं मिले। मैं फिर गया सुदामा जी के पास। उन्होने मुझसे कहा - गुप्ता जी से मिल लो। मैं गुप्ता जी से मिलने चला गया। गुप्ता जी की कमरे में दो लोगों की बैठने की व्यवस्था थी। घुसते ही बाईं ओर गुप्ता जी और दाईं ओर कोई सज्जन बैठते थे। गुप्ता जी फोन पर किसी से बतिया रहे थे। प्रणामा पाति के बाद गुप्ता जी से मैंने मिलने की वजह बताईं। उन्हनो ग़ौर से सुना । फिर तपाक से पूछा- आपके काम करने से क्या मेरा अख़बार एक कॉपी भी ज़्यादा बिका है? मैंने कहा-पता नहीं। फिर उन्होने पूछा- आपके आने से क्या मुझे एक सेंटीमीटर भी ज़्यादा का एड मिला है? मैंने कहा- पता नहीं। मुझे नहीं लगता कि शायद इन कामों के लिए मुझे रखा गया था। उन्होने पूछा - आपको रखा कौन? मैंने कहा -सुदामा जी। उन्होने पूछा- पहले से जानते हैं? मैंने कहा- नहीं। मैं नौकरी मांगने आया था। गुप्ता जी ने कहा- फिर आप सुदामा जी से मिल लीजिए। मैंने बेहद विनम्रता से उन्हे नमस्कार किया और चित्तरजंन एवेन्यू के उस दफ्तर से बाहर निकल गया। इसके बाद कोलकाता जाना कई बार हुआ। लेकिन मैं कभी चित्तरंजन एवेन्यू नहीं गया। आज ये मैं लेख इसलिए लिख रहा हूं कि मेरे परम श्रद्धेय वरिष्ठ पत्रकार मित्र और दैनिक राष्ट्रीय महानगर के संपादक श्री प्रकाश चंडालिया जी ने गुप्ती जी की याद में हुई संगोष्टी पर एक लेख लिखा है। उसे पढ़ने के बाद मुझे लगा कि गुप्ता जी के साथ बिताए गए कुछ पलों को एक बार फिर ताज़ा किया जाए। बेशक गुप्ता जी से मुझे पेमेंट न मिला हो लेकिन बेबाकीपन उनसे सीखने को ज़रूर मिला। इसलिए गुप्ताजी मुझे हमेशा याद आते रहेंगे।