मोहनदास करमचंद गांधी किसी पार्टी विशेष या नेता विशेष की थाती नहीं हैं। ये दीगर बात है कि ऐसे लोगों को दो अक्तूबर और 30 जनवरी को ही बापू की याद आती है। इन ख़ास दिनों पर ऐसे तबकों के लोग दहाड़ मार कर रोने लगते हैं । समाज को नसीहत देने लगते हैं कि ग्लोबल होने के बावजूद बापू को मन भूलो। ये बात मैं इसलिए कह रहां हूं कि बापू की नीतियों को बड़े बड़े गांधीवादी भी कई बार भूल जाते हैं। लेकिन इस देश की राजधानी में अब भी एक ऐसा कोना है, जहां के बच्चों में बापू का मूलमंत्र रचा बसा है।
नेशनल हाइवे नंबर चौबीस पर सड़क चौड़ा करने का काम चल रहा है। मयूर विहार से ग़ाज़ियाबाद जानेवाली पतली सड़कों इतना चौड़ा बनाया जा रहा है ताकि लोगों को आने जाने में अब घंटों ट्रैफिक में न फंसना पड़े। ये सारी क़वायद कॉमनवेल्थ गेम्स को लेकर है। बहरहाल, मयूरविहार फेज़ वन से आगे बढ़ते ही एक गांव आता है समसपुर। इसके उल्टे हाथ पर बसा है पटपड़गंज। हाइवे पर ही ग़ाज़ीपुर गांव आता है। सरकार समसपुर से लेकर ग़ाज़ीपुर तक सड़कों को चौड़ा कर रही है। इसके लिए सड़कों पर ईंट, पत्थर से लेकर चारकोल तक का अंबार लगा है। सड़क जब चौड़ी होगी, तब की तब। फिलहाल ईंट, पत्थरों की वजह से सड़क तंग हो गई है। ऐसे में आफिस आने जाने वालों की दिक़्क़तें और बढ़ गई हैं। हद तो तब हो जाती है जब दो पहिए पर सवार जाबांज़ ख़तरनाक करतब दिखाते हुए बाइक दौड़ाते हैं। बाइकसवारों को इतनी जल्दी होती है कि जहां से सूई भी नहीं गुज़र सके, वहां वो पहिया घुसा देते हैं। बस किसी तरह आफिस या घर जल्दी पहुंच जाए।
सड़क पर ईंट, पत्थर के अलावा मिट्टी भी पड़ी है। गाज़ीपुर गांव के बच्चों ने अपनी मेहनत से मिट्टी को समतल कर खेलने लायक़ मैदान बना लिया। आख़िर वो खेले भी तो कहां। उनके गांव में क्रिकेट या फुटबॉल का मैदान तो है नहीं। न ही उनके मम्मी - पापा, माफ कीजिएगा- माता पिता उन्हे किसी एम्युसमेंट पार्क, वॉटर पार्क, मॉल्स लेकर जाते हैं। न ही उन्हे खेलने के लिए बार्बी डॉल या पोको मैन जैसे खिलौने देते हैं। बच्चे तो ठहरे बच्चे। लिहाज़ा उतर आए सड़क पर खेलने। उन बच्चों को ये भी मालूम है कि सड़क पर खेलना ख़तरे से खाली नहीं है। लेकिन वो भी बचपने के आगे मजबूर हैं। वो निपट देहाती खेल खेलते हैं। गिल्ली-डंडा, रूमाल चोर, डॉक्टर-नर्स। लेकिन उन्हे तब खीज होती है जब जल्दी जाने की होड़ में बाइकवाला सड़क छोड़कर मिट्टी पर अपनी बाइक सरपट दौड़ाने लगता है। इससे उन खेल का ख़राब हो जाता है। एक दो बार की बात हो तो वो मान भी जाएं। यहां तो हर लम्हा किसी न किसी को जल्दी पड़ी होती है। उन्होने कई बार बाइकवालों को समझाया- अंकल, इधर बाइक मत चलाओ। लेकिन बाइकवालों की कान पर जूं नहीं रेंगी। बच्चों के ऐसे समय में बापू की याद आई। पता नहीं कि ये मुन्नाभाई एमबीबीएस का कमाल था या स्कूकी किताबों का असर। लेकिन उनका आइडिया धांसू था। एक शाम जब मैं घर लौट रहा था तो लगा कि आज जरूरत से ज़्यादा जाम है। वक़्त ज़्यादा लग रहा है। गाड़ियां रेंग भी नहीं पा रही हैं। किसी तरह थोड़ा आगे बढ़ा तो पाया कि आज बच्चों की संख्या बहुत ज़्यादा है। पता नहीं उन्होने रातों रात कहां से वानर सेना तैयार कर लिया था। सारे बच्चे मिट्टी वाले लाइन से लेकर बीच सड़कों पर आ गए थे। न कोई नारा, न कोई बैनर-पोस्टर, न किसी पार्टी का झंडा। जब लोग उनसे हटने का आग्रह करते थे तब उनका यही जवाब होता था कि क्या आपने हमारी बात कभी मानीं ? लोगों का सब्र जवाब दे रहा था। लेकिन उपाय भी नहीं था। कई लोगों ने बच्चों से वादा किया कि आइंदा वो रंग में भंग नहीं डालेंगे। गाड़ी सड़क पर ही चलाएंगे। तब जाकर कहीं बच्चों ने रास्ता खाली किया। मेरे मुंह से बस यही निकला - बापू तेरे देश में ........
1 comment:
बढ़िया है चंदन बाबू। रोचक अनुभव, शानदार तरीके से लिखा गया।
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