बंगाल की शेरनी ममता बनर्जी एक बार फिर दहाड़ने लगी हैं। लेकिन इस दहाड़ में ख़ौफ़ कम और मिमयाना ज़्यादा है। स्थानीय निकायों के चुनाव प्रचार में निकली ममता बनर्जी के बयान से ये मतलब साफ निकलता है कि उन्होने अब तक जो कुछ भी किया है , वो एक हद तक पागलपन ही था। पश्चिम बंगाल के एक गांव में तृणमूल कांग्रेस की चुनावी सभा में उन्होने जो कुछ भी कहा, वो अक्षरश लिख रहा हूं। मैं ये सनक और पागपन तब तक बंद नहीं करूंगी , जब तक सूबे से सीपीएम का सफ़ाया नहीं हो जाता।
क्या ममता बनर्जी इस पागलन के ज़रिए राज्य का विकास चाहती हैं ? क्या वो चाहती हैं कि राज्य से ग़रीबी मिटे ? क्या वो अपनी इस सनक से राज्य को भय, भूख और भ्रष्टाचार मुक्त बनाना चाहती हैं ? या उनका इरादा किसी भी तरह एक बार सूबे की मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठना है ? ज़ाहिर है कि डॉक्टर ममता बंधोपाध्याय ये कतई नहीं कहेंगी कि उनकी नीयत में खोट है। वो ख़ुद को राम कृष्ण परमहंस की तरह बैरागी ही बताएंगी। लेकिन सच क्या है ?
ममता बनर्जी एक तरफ़ ये कहती हैं कि सत्तानशीं सीपीएम और लेफ्ट की थैली में गुंडों और मवालियों की भरमार है। लेकिन क्या ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस दूध की धुली है? उत्तर 24 परगना के भाटपाड़ा से उनकी पार्टी से जो विधायक महोदय चुनकर आए हैं, उन पर कितने तरह के गंभीर आरोप हैं। हद तो ये है कि पार्टी के पुराने नेता विकास बौस की हत्या के पीछे उनका हाथ है। ये आरोप सीपीएम या लेफ्ट ने नहीं बल्कि विकास बोस की विधवा ने ही लगाए थे। विधायक महोदय पर रंगदारी , जबरन वसूली , हत्या और न जाने कितने तरह के इल्ज़ाम हैं। इंटाली विधनासभा क्षेत्र में पकड़ रखनेवाले उनकी पार्टी के नेता की इमेज बिहार - यूपी के महाबली नेताओं से की जाती है। क्या ममता बनर्जी अब ये मुहावरा सुनाएंगी कि लोहे को लोहा ही काटता है ?
बंगाल में बेरोज़गारी है। भूखमरी की नौबत है। गांव- देहात के किसान भूख से बिलबिला रहे हैं। परिवार दाने -दाने को मोहताज़ है। घर में फूटी कौड़ी नहीं है। ममता बनर्जी के व्यावसायी भाई अमित बनर्जी ने ऐसे कितने परिवारों को अपनी जेब से मदद की है ? ममता बनर्जी इन मुद्दों को लेकर कितनी बार मुख्यमंत्री, गृह मंत्री, प्रधानमंत्री या वित्त मंत्री से मिली हैं ? बात बात पर चौरंगी जाम कर देनेवाली ममता ने इन मुद्दों को लेकर कितनी बार धरना - प्रदर्शन किया है ?
नेशनल सेंपल सर्वे आर्गनाइज़ेशन के हालिया सर्वे में बंगाल की दुर्दशा ज़ाहिर होती है। बंगाल के गांवों के 10.6 फीसदी आबादी को भरपेट खाना नसीब नहीं हुआ। ये सर्वे पिछले साल के दिसंबर, जनवरी, फरवरी, मार्च और अप्रैल महीने के हैं। हालात तो पड़ोसी राज्यों असम और उड़ीसा की भी कमोबेश यही है। सर्वे रिपोर्ट चौंकने पर मजबूर करती है क्योंकि गांवों में साल के कुछेक महीने यही तस्वीर होती है। बंगाल के गांवों में पूरे साल 1.3 फीसदी आबादी को पूरे साल भरपेट खाना नसीब नहीं होता। हज़ारों परिवार ऐसे हैं, जिन्हे पूरे साल चावल के अलावा कुछ नसीब नहीं होता। मछली के लिए शौक़ीन माने जाने वाले ये बंगाली परिवार हाट बाज़ारों में ही मछली देखकर पेट भर लेते हैं। चावल के साथ दाल तो बहुत दूर की बात है। अगर गांव का ज़मींदार मेहरबान हो जाए तो खेतों से हरी सब्ज़ियां भी उन्हे कभी कभी नसीब हो जाती हैं। हरी सब्ज़ियों में भी वो सब्ज़ियां नहीं , जिन्हे हम नियमित तौर पर खाते हैं। उन्हे पोई साग मिल जाती है। लौकी के पत्ते मिल जाते हैं। केले का तना मिल जाता है, जिसे वो तरकारी बना लेते हैं। कभी - कभी बांस के कोपलों की भी तरकारी नसीब हो जाती हैं। नहीं तो पूरे साल पांथा भात .या मांड़ भात पर गुज़ारा करना होता है। अगर आप इन गांवों में जाकर चावल की क्वालिटी देख लें तो हैरानी में पड़ जाएंगे। बेहद मोटी और लाल रंग की होती है। लेकिन उनके नसीब में यही है। चावल को कुछ देर में पानी में भिगोकर रखते हैं। फिर कुछ घंटों बाद नमक मिलाकर का लेते हैं।
ये बंगाल की तस्वीर है। इस आइने को ममता बनर्जी पूरे देश को दिखाने का साहस करें। राज्य का भला हो जाएगा। जब लोग भूखे और नंगे होंगे तो मजबूरी में उन रास्तों पर चल पड़ेंगे , जिन पर उन्हे नहीं चलना चाहिए। ममता बनर्जी एक बार दास कैपिटल पढ़ लें, राज्य का भला हो जाएगा।
Thursday, February 14, 2008
Wednesday, February 6, 2008
छोड़ दे आंचल , ज़माना क्या कहेगा
बात बहुत छोटी सी है। बात बहुत छोटे से मुद्दे की है। बात मेरे जैसे छोटी सोच वाले लोगों की है। ये छोटी सी बात मेरे दिल में नश्तर की तरह चुभती है। सोचा क्यों न नश्तर चुभोकर सारे मवाद बाहर निकाल दूं। इसलिए ये बात आपके सामने पेश कर रहा हूं। अगर बुरी लगे तो ंमुझ जैसे लाखों -करोड़ों गंवई-देहाती लोगों की सोच को माफ कर देना। अगर कहीं से भी , रत्ती भर जायज़ लगे तो इस पर ग़ौर करें। ये अब गुज़रे ज़माने की बात हो गई है। कभी आंचल, दुप्पटा या चुन्नी का इस्तेमाल आंखों की हया से परदा करने का था। लेकिन पता नहीं आंखें बेहया हो गईं, या फिर ज़माने ने हमें बेहया कर दिया कि बग़ैर दुप्पटे को किसी कन्या को देखने के बाद हमारी आंखे हया तलाशने लगती हैं। आप कह सकते हैं कि ब्लैक माइंड आलवेज़ थिंक ब्लैक थिंग। अब आंखे हैं तो सड़क पर चलते हुए टकरेंगे ही। बस में सफ़र करेंगे तो साथी पर नज़र जमेंगी ही। लेकिन अपन ठहरे गंवार और देहाती । क्या जाने फ़ैशन की बातें। ज़्यादातर जो लड़कियां अपन को दिखती हैं , वो बहुत पहले दुप्पटे को अपनी ज़िदगी से विदा कर चुकी हैं। वो परम आधुनिक कपड़ों में दिखती हैं। लिवाइस, ली कूपर, वरसाचे, गुची, जिवो और न जाने कैसे कैसे नाम बताती हैं, जिस मैं तो क्या तो मेरे मरहूम अब्बा भी कभी न सुने हों। ख़ैर, टी शर्ट भी तरह तरह की। तरह तरह की आकृतियां बनीं हुईं। तरह तरह के हरफ़ ख़ुदे हुए। एक टी शर्ट देखी। सीने पर उभरी मध्यमा ऊंगली कन्या की नज़रों से होते हुए आसमान से आंखे मिला रही है। साथ में अंग्रेज़ी में ये भी लिखा है- F…। मतलब तो कन्या ही जानें या वो जिसे इसका मतलब पहले से पता है। एक और टी शर्ट की बानगी देखिए- Single, but not available। और देखिए - BIG ENOUGH FOR YOU,Wanna PLAY with me?- जनाब टी शर्ट पर लिखा है तो पढ़ने के लिए ही लिखा होगा। जी भर कर बांचिए। फोटू देखिए। तरह तरह के आकार और प्रकार देखिए। शायद इसलिए दप्पटा नहीं है ताकि आप इसे पढ़ सकें और जी भरकर देख सकें। आंखों में हया आ जाए तो मध्य प्रदेश सरकार का विज्ञापन याद करें- आंखे फाड़ फाड़ देखो। हद तो देखिए कि कमबख़्त टी शर्ट रह रहकर तंग रकती है। रह रह कर सिकुड़ जाती है। बिचारी को बार बार खींच कर नीचे कर लेती है। आख़िर लज्जा ही तो नारी का गहना है। अब गहना उसकी है तो हिफ़ाज़त भी तो वही करेगी न। आ गई न शर्म. कर ली न आंखें नीचे। अब तो जी चाहता है कि आंखें फोड़ लूं। नज़रें नीची क्या हुईं। शर्म से गड़ गया। क्योंकि टी शर्ट के बाद अब डेनिम की पतलून चुहलबाज़ी करने लगी। रह रह कर सरक रही थी। अंर्तवस्त्र के कुछ हिस्से बाहर निकलकर नैना मिलाने को बेताब थे। इस नामुराद को बाद में पता चला कि नैना मिलाने का ये लेटेस्ट फैशन है। ख़ैर, कुछ ऐसी भी टकरती हैं जो पूरब है और न पच्छिम। वो पहनती तो सलवार कुर्ता ही हैं लेकिन दुप्पटे को ओढ़ने की बजाए कंधों पर टांग लेती हैं। मैने किसी से पूछा कि भाई साहब - ये कौन सा फैशन है। तो उनका जवाब था - BMT। मैने कहा कि इस फैशन का नाम तो पहली बार सुना है। उन्होने बताया- BEHANJI TURNING MOD। कहा कि - दादा बाबू - कोलकाता से बाहर निकलो। ये बड़ा शहर है। लोगो की सोच बड़ी है। दिल बड़ा है। सबकुछ बहुत बड़ा है। छोटी सोच से बाहर निकलो अगर बड़े शहर में रहना है तो। मैं उधेड़बुन में था। मेरा साथी गाते हुए कनॉट प्लेस की गलियों में खो गया- कब तक जवानी छुपाओगी रानी, कब तक क्वारों को तरसाओगी रानी...
मैं सोचने लगा कोलकाता का वो दिन.... क्या मारवाड़ी, क्या बंगाली और क्या बिहारी. क्या अमीर और क्या ग़रीब- जब सबकी बहन -बेटियां घर की दहलीज़ लांघती थीं तो सिर पर आंचल और सीने पर दुप्पटा होता था। शायद तभी ये गाना बहुत चला था- छोड़ दो आंचल , ज़माना क्या कहेगा। अब ज़माना क्या कहेगा और क्या कर लेगा जब आंचल ही न हो।
मैं सोचने लगा कोलकाता का वो दिन.... क्या मारवाड़ी, क्या बंगाली और क्या बिहारी. क्या अमीर और क्या ग़रीब- जब सबकी बहन -बेटियां घर की दहलीज़ लांघती थीं तो सिर पर आंचल और सीने पर दुप्पटा होता था। शायद तभी ये गाना बहुत चला था- छोड़ दो आंचल , ज़माना क्या कहेगा। अब ज़माना क्या कहेगा और क्या कर लेगा जब आंचल ही न हो।
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