बिहार के बाद बहुत जल्द ही पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं। इनमें से पश्चिम बंगाल, असम और केरल के चुनाव राजनीति के हिसाब से बेहद अहम माने जा रहे हैं। इन राज्यों के चुनावी नतीजे केंद्र की भावी राजनीति और मोदी सरकार के भविष्य की दशा दिशा तय करेगा। असम में बीजेपी की मिली जुली सरकार है। असम में घुसैपेठियों के मुद्दे पर चुनाव लड़ने जा रही बीजेपी के लिए सरकार बचाए रखने की चुनौती है तो वहीं पश्चिम बंगाल में बीजेपी ने अमित शाह और जेपी नड्डा की अगुवाई में पूरी ताकत झोंक रखी हैं। बंगाल में हर पल राजनीति करवट ले रही है। कभी विकास बनाम विनाश का नारा बुलंद किया जाता है तो कभी लड़ाई राम बनाम दुर्गा पर आकर टिक जाती है। टीएमसी नेताओं को लगातार तोड़कर बीजेपी ये संदेश देने की कोशिश कर रही है कि ममता बनर्जी की तानाशाही और मनमानी से पार्टी के लोग ही परेशान हैं। वहीं बेपरवाही दिखाकर सीएम और टीएमसी ममता बनर्जी ये दिखाने की कोशिश कर रही हैं कि इससे उनको कोई फर्क नहीं पड़ता। वो अपने दम पर सरकार में लौटेंगी।
बीजेपी की कोशिश है कि बंगाल का चुनाव वो बहुकोणीय बना सके। इसमें वो अपना ज्यादा से ज्यादा फायदा देख रही है। बिहार जीतने के बाद AIMIM चीफ असदुद्दीन ओवैसी भी हुगली वाले फुरफुरा शरीफ के साथ मिलकर चुनाव लड़ने जा रहे हैं। हांलाकि टीएमसी उन्हें बाहरी बताकर कुछ यूं जताने की कोशिश कर रही है कि मानों ओवैसी का आना उसे अखर रहा है। क्योंकि ओवैसी 35 फीसदी मुस्लिम वोटरों में सेंध लगाकर कहीं ना कहीं से बीजेपी के लिए जीत की राह आसान करने आए हैं। वहीं कभी टीएमसी के साथ मिलकर कभी चुनाव लड़ने का इरादा रखनेवाले ओवैसी अपने ऊपर लगे आरोपों को झुठलाने में मशगूल हैं। फिलहाल बंगाल का चुनाव में तीन बड़े प्लेयर दिखाई दे रहे हैं। सत्ताधारी टीएमसी का मुख्य मुका़बला कमजोर या यूं कहें कि लगभग खत्म हो चुकी लेफ्ट और कांग्रेस की जगह बीजेपी से है। मैदान में कांग्रेस और लेफ्ट का गठबंधन है। अभी फुरफुरा शरीफ और ओवैसी का गठबंधन जमीनी स्तर पर आकार नहीं ले पाया है लेकिन मीडिया में जरुर छाया हुआ है।
हिंदी पट्टी के राज्यों को जीतने की आदत बना चुकी बीजेपी बंगाल को भी उसी तरह से ट्रीट कर रही है। वो भूल रही है कि ये माटी राम नाम के फसल नहीं देती। इस राज्य में रामनवमी कभी भी उस उत्साह के साथ नहीं मनाया गया जैसा कि बिहार यूपी में होता है। जिस छटी मैय्या को यादकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बिहार के चुनाव में कूदे थे। बावजूद इसके जिस तरह से वो सत्ता में लौटे। वो किसी से छिपा नहीं है। वो छटी मैय्या बंगालियों के लिए कोई गर्व देनेवाला त्यौहार भी नहीं है। बिहार यूपी के लोग वहां पर ये उत्सव जोर शोर से मनाते हैं। बंगाली इसमें सहयोग ज़रुर करता है। लेकिन इसे बिहारियों और मेड़ो (एक तरह से अपशब्द) का पर्व मानता है।
बंगाल में दुर्गा, काली और जगद्धार्थी जिस तरह से पूजी जाती हैं और बंगालियों में इन देवियों के लिए जिस तरह से आराध्य हैं। उस तरह बंगाल की धरती पर श्रीराम पूजनीय नहीं है। आराध्य नहीं है। बंगालियों में जिस तरह से दुर्गा और काली के लिए जोश उबाल मारेगा, उस तरह से राम के लिए नहीं। बंगाल में राम के लिए दहाड़नेवाले बीजेपी के चाणक्य अमित शाह को इस मर्म को समझना होगा। बंगाल में उनके राम का नारा मावड़ा (बंगालियों की भाषा में बिहार यूपी के लोग) को उद्वेलित जरुर कर सकता है। लेकिन बंगालियों को नहीं। बंगाली आदीशक्ति देवी दुर्गा के समकक्ष किसी को नहीं मानता। ममता ने श्रीराम के नारे को जय सिया राम में बदलकर ये बताने की कोशिश की है कि राम से परहेज़ नहीं है। लेकिन राम को अगर नारी शक्ति सिया का साथ ना मिला होता तो वो मर्यादा पुरुषोत्तम ना बन पाते। बीजेपी के पास फिलहाल इसका कोई तोड़ नहीं है। बंगाल में राम से कहीं ज्यादा श्रीकृष्ण पूजे जाते हैं। इस्क़ॉन वालों ने कृष्ण का बड़ा मंदिर भी बना रखा है। लेकिन कृष्ण भी दो तीन जिलों में ही बेहद पूजनीय हैं। रही बात देवी दुर्गा की तो बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष राम की महिमा के बखान में देवी दुर्गा के अस्तिव को चुनौती देकर सेल्फ गोल कर चुके हैं। उनका ये बयान साथी शुभेंदु अधिकारी के सीएम की कुर्सी पर दावे को कमजोर करने के लिए था कि वो सबसे बड़े राम भक्त हैं। अपेन इस बयान से वो बड़े रामभक्त तो जरुर बन गए हैं लेकिन बीजेपी को बंगालियों के बीच दुश्मन भी बना गए हैं। दिलीप घोष के बयान के बाद बीजेपी के लिए अब उतना जोरदार माहौल भी नहीं रहा, जो चंद रोज़ पहले तक था। फिलहाल जो सियासी माहौल दिख रहा है, वो मोदी, शाह, नड्डा और संघ की पूरी शक्ति के बाद भी टीएमसी बढ़त पर दिख रही है।